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[ पुरुषार्थ सद्ध यु पाय mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm विवेकशून्य हैं, ऐसे पुरुष नियमसे मरकर दुर्गतिके पात्र बनते हैं । इसलिये प्रत्येक विचारशील दयालु पुरुषको रात्रिभोजन त्यागदेना ही परम आवश्यक है।
रात्रिभोजनत्यागी ही अहिंसापालक है। किंवा बहुप्रलपितैरिति सिद्ध यो मनोवचनकायः । परिहरति रात्रिभुक्ति सततमहिसां स पालयति ।।१३४॥
अन्वयार्थ-( बहुप्रलपितैः ) बहुतसा कहनेसे (किं वा ) क्या फायदा है ( इति ) इमप्रकार ऊपरके समस्त विवेचनसे ( सिद्ध) यह बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि ( यः मनोवचनकायः ) जो मन वचन कायसे (रात्रिभुक्तिं परिहरति ) रात्रिभोजनका त्याग करता है ( सः ) वह ( सततं अहिंसां पालयति ) वह निरन्तर अहिंसाव्रतको पालता है ।
विशेषार्थ-अधिक कहना व्यर्थ है जो मन बचन कायसे रात्रिभोजनका त्याग करदेता है वही अहिंसावतका निरंतर पालनेवाला है । हरएक वस्तु का त्याग नवभंगीसे होता है । जो जितने भंगोंसे वस्तुका त्याग करता है वह उतने ही अंशोंका त्यागी कहलाता है । कोई मन वचन काय तीनोंसे त्याग करता है, कोई मनसे त्याग नहीं कर सकता, वचनसे और कायसे करता है । कोई स्वयं करता है, कोई दूसरोंसे भी कराता है, और कोई त्याग नहीं करनेवालेकी प्रशंसा भी नहीं करता, इसप्रकार हरएक वस्तुके त्यागके नौ भंग हैं, उनमें पूर्णत्यागी वही कहा जाता है जो त्याज्य वस्तु का नव भंगोंसे ही त्याग करता है ।
रत्नत्रयसेवी मोक्ष पाते हैं इत्यत्र त्रितयात्मनि मार्गे मोक्षस्य ये स्वहितकामाः। अनुपरतं प्रयतंते प्रयांति ते मुक्तिमचिरेण ॥१३५॥
अन्वयार्थ-( ये स्वहितकामाः ) जो अपने हितके चाहनेवाले पुरुष ( इति अत्र त्रितयात्मनि मोक्षस्य मार्गे ) इसप्रकार सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्र इन तीन स्वरूप मोक्षके मार्गमें (अनुपरतं प्रयतंते ) निरंतर प्रयत्न करते है ( ते अचिरेण ) वे शीव ही ( मुक्तिं प्रांति ) मोक्षको प्राप्त होते हैं ।
उतने ही अंगास होता है। तका निरंतर प
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