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[ पुरुषार्थसिद्धय राय
विशेषार्थ शंकाकार का कहना है कि जब रात्रिदिन खानेवालेको तीव्ररागी कहकर रात्रिभोजनका त्याग बतलाया गया है तब दिनमें ही भोजन करनेका त्याग क्यों न किया जाय ? कारण दिनरात में से एक समय में भोजन छोड़ना पड़ता है एक समय में उसका ग्रहण करना भी अनिवार्य है । जब उसका ग्रहण होगा तभी राग होगा जब उसका त्याग होगा तभी रागकी कमी होगी इसलिये रात्रि के चारपहर में तो भोजन ग्रहण किया जाय और दिनके चारपहर में उसका त्याग कर दिया जाय क्योंकि चारपहर कहीं छोड़ देना चाहिये । ऐसा करने से जो रातदिन भोजन करनेसे सदैव हिंसा हुआ करती है वह नहीं हो सकेगी ?
उत्तर
नैवं वासरभुक्तेर्भवति हि रागोधिको रजनिभुक्तौ । अन्नकवलस्य भुक्तेर्भुक्ताविव मांसकवलस्य ॥१३२॥
अन्वयार्थ – (नैवं ) इसप्रकार कुतर्क नहीं करना चाहिये ( हि ) क्योंकि ( वासरभुक्त: )
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दिनमें भोजन करने की अपेक्षा ( रजनिभुक्तौ ) रात्रिमें भोजन करनेपर ( रागः अधिक मवर्ति ) राग अधिक होता है (अनकवलस्य भुक्त: ) अन्नके ग्रासके खानेकी अपेक्षा (मांसकबलस्य भुक्तो इव ) मांस के ग्रासके खानेमें जैसे अधिक राग होता है ।
विशेषार्थ -- शंका कारने जो ऊपर रातदिन में भोजन में समान दोष बतलाकर रात्रिभोजनका विधान और दिवा भोजनका निषेध बतलाया था उसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार विपरीतमार्गका अनुसरण करना ठीक नहीं है, यह बात हेतुपूर्वक सिद्ध है कि दिनकी अपेक्षा रात्रिभोजन में अधिक राग है । जिसप्रकार अन्नकी अपेक्षा मांसके खाने में अधिक राग है । यह बात हम पहले कह चुके हैं कि जो विशेष पापरूप कार्य हैं उनके सेवन करनेमें तीव्रराग होता है कारण जो पदार्थ निषिद्ध है फिर उसमें प्रवृत्तिका होना बिना किसी विशेष बलवती प्रेरणाके नहीं हो सकता । इसलिये पापिष्ठ एवं निषिद्ध पदार्थों में प्रवृत्ति देखकर यह
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