SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थसिद्धय, पाय ] | २६५ जाता है, उसकी मरणसन्मुख अवस्था उसके लिये आते कष्ट देती है जैसे वह छिपने की चेष्टा करता है वैसेही दुष्ट जीवभक्षणी बिल्ली उसपर कोधपूर्ण दृष्टिसे दौड़ती है, इसलिये यह बात एक स्थूलबुद्धि भी समझ सकता है कि बिल्लोके परिणामोंमें अतितीव्र मूर्छा एवं हिंसा है और हरिण के परिणामोंमें उसकी अपेक्षा नितांतकम है। मूर्छा के आधारपरही हिंसा भी बिल्लीको तीव्र लगती है, हरिणको उसकी अपेक्षा बहुत ही कम लगती है । दृष्टांत में दृष्टांत निर्वाधं संसिद्ध्येत् कार्यविशेषो हि कारणविशेषात् । औधस्यखंडयोवि माधुर्यप्रीतिभेद इव ॥ १२२॥ अन्वयार्थ - ( कारण विशेषात् ) कारण विशेषसे ( कार्यविशेषः ) कार्य विशेष ( हि ) निश्चयसे । निर्बाधं सं सिद्धयेत् । निर्वाध रीतिसे सिद्ध होता है ( इव ) जैसे ( औधस्य - खंडयोः माधुर्यप्रीतिभेद एव ) [ औधस् नाम दूधवाले पशुओंके थनोंके ऊपर दूधसे भरे हुये भाग ( ऐन ) का हैं उस भाग में दूध पैदा होता है इसलिये औधस्य नाम दूधका है ] दूध और खांड दोनोंकी मधुरता में प्रीतिका जिसप्रकार भेद देखा जाता है । विशेषार्थ - जैसा कारण होता है उसीप्रकारका उससे कार्य सिद्ध होता है यह बात घट पट आदि सभी पदार्थों के देखनेसे सप्रमाण प्रसिद्ध है । मिट्टी से घड़ा बनता है, सूतसे वस्त्र बनता है इसलिये जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है । इसलिये जहांपर मूर्छाकी तीव्रता है वहांपर तीव्र हिंसा होती है और जहांपर मूर्छाकी मंदता है वहां पर मंद हिंसा होती है। जिसप्रकार दूधमें भी मधुरता है और खांडमें भी मधुरता है परन्तु मधुरता के कारणों में भेद होने से उनके कार्यों में भी भेद हो जाता है, दूधकी मधुरताका कारण दूध है, खांडकी मधुरताका कारण खांड है, इस लिये दोनोंकी मधुरताके आस्वादन करनेवालेकी रुचिमें भेद हो जाता है । वह दोनोंकी मधुरताका आस्वादन भिन्न भिन्न रूपसे करता एवं समझता है उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । Jain Education Interna३४al For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy