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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
[ २६३
अस और स्थावर और आरंभका पाये हैं और जहा
होते हैं इसलिए वे त्रस और स्थावर हिंसासे विरक्त रहते हैं तथा अप्रमत्त. परिणामी रहते हैं। जहां परिग्रह और आरंभका एकदेश भी त्याग है वहां शास्त्रकारोंने मनुष्यायुके बंधयोग्य परिणाम बतलाये हैं और जहां बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह है वहां नरक आयुके बंध योग्य परिणाम बतलाये हैं।
मूर्छा विशेष में हिंसाविशेष एव न विशेषः स्यादुंदररिपुहरिणशावकादीनां । नैव भवति विशेषस्तेषां मूर्छाविशेषेण ॥१२०॥
अन्वयार्थ- [ एवं ] इसप्रकार अर्थात् यदि बहिरंगपरिग्रहों में मर्जीका उत्पन्न होना ही हिंसा है तो [ उंदररिपुहरिणशावकादीनां ] बिल्ली और हरिणके बच्चे आदिके विषय में [ न विशेषः स्यात् ] कुछ विशेष नहीं होगा। [ एवं न ] उत्तरमें कहते हैं कि ऐसा नहीं है [ तेषां मू विरोण ] उनके म विशेषसे [ विशेषः भवति ] विशेष है। ___ विशेषार्थ-यहांपर यह शंका उठाई गयी है कि यदि माना जाय कि बाह्यपरिगहोंमें ममत्व परिणामोंका होना ही हिंसा है तो फिर ज्यादा हिंसा करनेवाले और कम हिंसा करनेवाले समान पापके भागीदार बन जायेगे क्योंकि एक बिल्ली जो चूहोंका ध्वंस करती है वह भी चूहे में ममत्वपरिणाम रखती है और एक हरिणका बच्चा जो कि बिना किसी का वध किये केवल घासके तृण खा रहा है वह भी उस घाससे ममत्वपरिणाम रखता है । ममत्वपरिणाम बाह्यपदार्थमें दोनोंके हैं इसलिये दोनों ही समान हिंसाके भागी ठहरेंगे ? इस शंकाका उत्तर यह है कि जब ममत्वपरिणाम ही हिंसारूप हैं तो जहां जैसे ममत्वपरिणाम होंगे वहां वैसी ही हिंसा होगी। यह तो नहीं कहा जा सकता कि चूहेको ग्रहण करते समय बिल्लीके परिणाम और घासको ग्रहण करते समय हरिण परिणाम समान हैं, दोनोंके ममत्वमें जब अधिकता और हीनता है तो उनकी हिंसामें भी अधिकता और न्यूनता स्वभावसिद्ध है। जहां
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