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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
[२३६ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm हुई बात है कि जिसका जो स्वरूप होगा उसी स्वरूपसे वह होगा, परस्वरूपसे पर होगा । इसीका नाम स्व द्रव्य क्षेत्र काल भाव है । प्रत्येक वस्तुका द्रव्य क्षेत्र काल भाव जुदा जुदा है। यदि एक हो तो सब वस्तुओंमें कोई भेद न रहे, वे सब एक हो जाय । ___ द्रव्य क्षेत्र काल भाव क्या पदार्थ है ? इसका संक्षिप्त खुलासा इसप्रकार है। जिन प्रदेश अथवा परमाणुओंका पिंड वह वस्तु है वे प्रदेश अथवा परमाणुपिंड ही उस वस्तुका द्रव्य है। खंडकल्पनाकी अपेक्षा जितने आकाशप्रदेशोंको वस्तुके प्रदेशोंने घेर लिया है वे वस्तुप्रदेश ही वस्तु के निजक्षेत्र हैं । उन वस्तुप्रदेशोंमें होनेवाला कालकृत प्रतिक्षण परिणमन है वही उस वस्तुका काल है और उस वस्तुमें रहनेवाले जो गुणधर्म हैं वे ही उस वस्तुके भाव हैं । इन चारोंपर विचार करनेसे इस बातका स्पष्टीकरण हो जाता है. कि वस्तुका जो कुछ स्व-स्वरूप है वह उसीका गुण, पर्याय और प्रदेशपिंड है, उससे भिन्न वस्तुका स्व-स्वरूप कुछ नहीं है। इसलिये प्रत्येक वस्तु निजधर्म और निजप्रदेशपिंडसे सत्ता रखती है । इस श्लोक में 'स्व' पदसे द्रव्यका ग्रहण किया गया है । जो वस्तु अपने स्वरूपसे उपस्थित भी है फिर किसीके पूछनेपर कह देना कि वह नहीं है तो यह झूठ वचन है । जैसे देवदत्त घरमें मौजूद है परन्तु किसीने वाहरसे पूछा कि देवदत्त है ? उत्तरमें घरसे कोई जबाब दे देवे कि वह यहांपर नहीं है तो यह असत्य वचन है । इसमें उपस्थित वस्तुका अपलाप किया गया है।
दूसरे प्रकारका असत्य असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनतमस्मिन्यथास्ति घटः ॥६३॥ अन्वयार्थ - [ यत्र ] जिस वचनमें [ असत् अपि वस्तुरूपं ] अविद्यमान भी वस्तुस्वरूप तैः परक्षेत्रकालभावैः ] उन भिन्नक्षेत्र मिन्नकाल मिनभावोंद्वारा [ उद्भाव्यते ] कहा जाता है
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