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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [२३. और न वह दयालु ही कहा जा सकता है जो कि निज शरीरका मांस देकर अपने परिणामोंको कलुषित बनाता है और दूसरेके आत्माको पापमय प्रवृत्तिमें लगाता है इसलिये इसप्रकार किसी भूखेको भी मांसादि अभक्ष्यपदार्थ कभी नहीं देना चाहिये और न किसीप्रकार धर्मके निमित्त आत्मघातमें प्रवृत्त होना चाहिए, आत्मघातके बराबर कोई दूसरा पाप नहीं है । जिनमतसेवी कभी हिंसा नहीं करते को नाम विशति मोहं नयभंगविशारदानुपास्य गुरून् । विदितजिनमतरहस्यः श्रयन्नहिंसां विशुद्धमतिः॥६० ॥ अन्वयार्थ-( नयभंगविशारदान ) वस्तुधर्मोंकी अपेक्षाको अच्छीतरह जाननेवाले ( गुरून् ) जैनगुरुओंकी ( उपास्य ) उपासना-पूजा करके ( विदितजिनमतरहस्यः ) जिनमतके रहस्यको समझनेवाला अतएव ( विशुद्धमतिः) निर्मल बुद्धिको धारण करनेवाला ( अहिंसां श्रयन् ) अहिंसातत्त्वपर आरूढ़ रहनेवाला ( को नाम ) कौन पुरुष ( मोहं विशति ) मोहको प्राप्त होता है ? अर्थात् कोई नहीं होता। ____ विशेषार्थ-जिसने जैन गुरुओंके पास रहकर अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित शास्त्रोंद्वारा जिनमतको अच्छी तरह समझ लिया है वह नियमसे निर्मल बुद्धिवाला बन जाता है और अहिंसातत्त्वपर अच्छीतरह आरूढ़ हो जाता है । वह पुरुष ऊपर बताये हुए हिंसामय कुकृत्योंमें कभी प्रवृत्त नहीं हो सकता । हिंसामें धर्म अथवा दया बतानेवाले पुरुषोंका प्रभाव उस अहिंसातत्त्वसेवीकी आत्मापर तनिक भी नही पड़ सकता। ( इसप्रकार ४८ रखोकोंमें अहिंसातत्वनिरूपण समाप्त हुआ) असत्यका लक्षण यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भदाः संति चत्वारः ॥१॥ अन्वयार्थ—( यत् ) जो (किं अपि ) कुछ भी ( प्रमादयोगात् ) प्रमादके योगसे ( इर्द ) यह ( असत् अभिधानं ) असत्य कथन (विधीयते ) कहा जाता है ( तत् ) वह ( अनृतं ) असत्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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