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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय } [ २१७ अग्निपर तपाकर घृत बना लेवें तभी उसका ग्रहण करें। आजकल मक्खन के विषय में बहुत कम लोग विचार करते हैं । बहुभाग लोग एक, दो एवं आठ दिन तक मक्खनको कच्चा ही रखते हैं पीछे उसे अग्निपर तपाते हैं । ऐसी अवस्था में उन समस्त जीवोंकी हिंसाके वे भागीदार हैं जो कि उसमें दो मुहूर्त पीछे पड़ चुके हैं । इसलिये इस शिथिलाचारको तुरन्त दूर करनेका जैनियोंको प्रयत्न करना चाहिये । दूसरी बात शहद के विषयमें भी है । बहुसंख्यक जैनीभाई बीमारी के समय चटनी आदि औषधिके लिये शहदकी चासनी बना लेते हैं और उसी शहद के साथ औषधि खा लेते हैं । मधुका ग्रहण करना तो दूर रहा उसका स्पर्श भी आचार्यों ने महान पापबंधका कारण बतलाया है । उसका कारण भी प्रगट किया है कि उसके आश्रित रहने वाले समस्त जीवोंका बध हो जाता है, मधुबिंदु को खाने वालेके लिये सात गावोंके जलाने वालेके बराबर पापी बतलाया गया है, इसलिये मधुका सर्वथा त्याग कर देना ही प्रत्येक जैनके लिये अत्यावश्यक है । जो पदार्थ अभक्ष्य हैं, अनुपसेव्य हैं, उनका ग्रहण जैनमात्रके लिये निषिद्ध है । जो मधुका भी त्याग करनेमें असमर्थ हैं वे हिंसासे कभी नहीं बच सकते और न वे जैन कहलाने के पात्र हैं कारण अष्ट मूलगुणका धारण करना जैनत्वका प्रथम लक्षण है, उसके अभाव में जैनत्व का भी अभाव समझना चाहिये । । पांच उदु बरफल योनिरुद बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पल फलानि । सजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा ॥७२॥ अन्वयार्थ – [ उदु'बरयुग्मं] उदुंबर युग्म ऊमर और कठूमर [प्लक्षन्य प्रोधपिप्पलफलानि ] पाकर, बड़ और पीपलफल [त्रसजीवानां ] त्रस जीवोंके [योनिः] योनिभूत हैं अर्थात् श्रमजीवों की उत्पत्ति के ये पांचों फल घर हैं इनमें अनेक त्रसजीव उत्पन्न होते रहते हैं [तस्मात् ] इसलिये [तद्भक्षणे] उनके भक्षण करने में [तेषां] उन त्रसजीवों की [हिंसा] हिंसा [भवति] होती है । For Private & Personal Use Only २८ Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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