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________________ २१६ ] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय _ विशेषार्थ-जो स्वयमेव छत्तेसे गिरे हुये मधुका सेवन करता है वह भी हिंसक होता है, कारण कि उसके आश्रित रहनेवाले सभी जीव नष्ट हो जाते हैं अथवा जो किसी भी छलसे मधुबिंदु काग्रहण करता है वह नियमसे हिंसक होता है। व्रती इनका भक्षण नहीं करते मधु मद्य नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः। बल्भ्यंते न वतिना तद्वर्णा जंतवस्तत्र ॥७१॥ अन्वयार्थ- [ मधु मद्य नवनीतं ] मधु-शहद, मदिरा-शराब, नवनीत-मक्खन, अथवा लौनी [ च ] और [ पिशितं ] मांस [ महाबिकृतयः ] महान् विकृतिवाले पदार्थ हैं अर्थात् इन पदार्थों के सेवन करनेसे आत्मामें विकार पैदा होता है इसलिए [ ताः । ये चारों [वतिना ] व्रती पुरुषोंके द्वारा [ न बल्भ्यंते ] नहीं सेवन किये जाते हैं क्योंकि [ तत्र ] उनमें [ तद्वर्णाः ] उसी वर्णवाले [ जंतवः ] जंतु उत्पन्न होते रहते हैं । विशेषार्थ- मधु, मदिरा, मक्खन और मांस इन चारों ही मकारोंमें उन्हीं उन्हीं रंगवाले जीव उत्पन्न होते रहते हैं इसलिये व्रती पुरुष उनका कदापि सेवन नहीं करते हैं । इनका सेवन करनेवालोंकी आत्मा महामलिन विकारयुक्त एवं नीचपथकी अवलंबिनी बन जाती है । इन उपयुक्त पदार्थों में मदिरा और मांसका तो जैनमात्रके ही त्याग होता है, परन्तु कोई कोई भाई शहद और मक्खनका सेवन करते हुए पाये जाते हैं । परन्तु उन्हें भी न सेवना चाहिये क्योंकि मधु और मक्खन इन दोनोंको मदिरा और मांसके साथ वर्णन किया है, इसलिये इन दोनों की भी वही कोटि है जो मदिरा और मांसकी होती है। इतना विशेष है कि मक्खनमें एक मुहूर्तके पीछे जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है। कोई कोई दो मुहूर्त पीछे उसमें जीवोंकी उत्पत्तिका विधान करते हैं। दोनों ही अवस्थाओंमें वह एक मुहूर्त अथवा दो मुहूर्त पीछे सर्वथा अभक्ष्य हो जाता है। इसलिए श्रावकोंको चाहिये कि एक मुहूर्तके भीतर ही मक्खनको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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