________________
पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
[ २०३ www.mmmmmmmmmmmmmmm rrrrrrrrrrrrrimmmmmmmm.. उनके भी अशुभ कर्म बंधेगा और फलकालमें राजाके समान उन्हें भी दुःख उठाना पड़ेगा इसलिये यह बात युक्निसिद्ध है कि एक करता है अनेक उसका फल भोगते हैं।
कहीं पर इसके विपरीत है अर्थात् अनेक हिंसा करते हैं फल एकको मिलता है । जैसे किसी राजाकी आज्ञा हो कि अमुक पुरुषको मार डालो परंतु सैनिक लोगोंकी इच्छा नहीं है कि वे उसे मारें फिर भी राजाके तीव्र अनुरोध (आज्ञा) एवं राजदंडके भयसे वे उसे मारनेमें प्रवृत्त होते हैं इसलिये उस हिंसाका फल उस आज्ञा देनेवाले राजाको ही मिलेगा; सैनिक लोग तो बिना इच्छाके राजाज्ञासे उस दुष्टकर्ममें प्रेरित होकर प्रवृत्त हुए हैं वे उस हिंसाके भागीदार नहीं होंगे । इससे यह बात सिद्ध होती है कि अनेक हिंसा करते हैं परंतु उसका फल एकको मिलता है। यहां पर भी परिणामोंकी ही विचित्रता समझना चाहिये कि क्रिया करनेवाला तो हिंसाका फल नहीं पाता है और क्रिया नहीं करनेवाला पाता है ।
___ और भी कहा है। कस्यापि दिशति हिंसा हिंसाफलमेकमेव फलकाले। अन्यस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसाफलं विपुलं ॥५६॥
अन्वयार्थ - ( कस्य अपि हिंसा ) किसी जीवको तो हिंसा ( फलकाले ) फलकालमें ( एकं एव हिंसाफलं ) एक ही हिंसारूप फलको ( दिशति । देती है ( अन्यस्य ) दूसरे जीब को ( सैव हिंसा ) वही हिंसा (विपुलं अहिंसाफलं । बड़े भारी अहिंसारूप फलको ( दिशति ) देती है। ___ विशेषार्थ-किसी जीवने दूसरे जीवकी हिंसा हिंसाकरनेके अभिप्रायसे यदि की हो तो उसे हिंसारूप ही फल मिलेगा अर्थात् हिंसा करनेसे जो बुरे कर्मों का उसके बंध हुआहै उदयकालमें वह उसे दुःख देकर ही निकलेगा और किसी जीवने हिंसातो की परंतु अभिप्राय उसका उत्तम हो तो उसे हिंसारूप फल न मिलकर अहिंसारूप फल मिलेगा । जैसे जंगलमें ध्यानमें बैठे हुए मुनि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org