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________________ [१६७ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm...mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm नयका स्वरूप नहीं मालूम है । बिना वाह्यक्रियाओंका विचार किये परिणाम ठीक नहीं रह सकते, क्योंकि परिणामोंकी शुद्धि अशुद्धि वाह्यपदार्थों एवं बाह्यक्रियाओंके निमित्तसे होती है इसलिये बाह्यप्रवृत्तिका विचार रखना नितांत आवश्यक है । जो पुरुष दौड़कर विना देखे चलने लगे, विना देखे भक्ष्याभक्ष्य खाने लगे, बिना छाना हुआ जल पीने लगे, विना देखे वस्तुओंको उठाने लगे और रखने लगे फिर यह कहे कि बाह्यप्रवृत्ति मेरी कैसी भी रहो परिणामोंको मैं ठीक रक्खूगा तो मुझे हिंसा नहीं लगेगी, तो ऐसा कहनेवाला अविवेकी है वह परिणामोंको कभी सम्हाल नहीं सकता, विना वाह्यप्रवृत्तिमें जीवरक्षाका विचार किये जीवहिंसासे कभी छूट नहीं सकता इसलिए परिणामोंकी विशुद्धिके लिये वाहयप्रवृतिको संयमित बनानेकी अत्यावश्यकता है। जो केवल निश्चयनयका अवलम्बन करके बाहयप्रवृत्ति का विचार नहीं करते हैं वे निश्चयनयके स्वरूपसे भी अपरिचित हैं क्योंकि नयवाद अनेकांतरूप है, वह स्याद्वादके नामसे प्रसिद्ध है, यदि उसका ग्रहण एकांतरूपसे किया जायगा तो वस्तुसिद्धि नहीं हो सकती इसलिए निश्चय और व्यवहार दोनों नयोंका आश्रय कर निश्चयतत्त्व और व्यवहारतत्व दोनोंकी सिद्धि करना आवश्यक है। परिणामोंकी विशुद्धताका भी पूरा लक्ष्य रखना आवश्यक है और वाह्यप्रवृत्तिको भी निर्दोष बनाना आवश्यक है, किसी एकके छोड़ देनेसे कोई भी सिद्ध नहीं हो सकता । हिंसा अहिंसाके पात्र अविधायापि हि हिंसां हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥५१॥ अन्वयार्थ- ( हि ) निश्चयसे ( हिंसां अविधाय अपि ) हिंसाको नहीं करके भी (एकः) एक कोई जीव ( हिंसाफलभाजनं) हिंसाके फलका भोक्ता (भवति) होता है (अपरः ) दूसरा जीव ( हिंसां कृत्वा अपि) हिंसा करके भी ( हिंसाफलभाजनं ) हिंसाके फलका भाजन ( न स्यात् ) नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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