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पुरुषार्थसिद्धय पाय
पदार्थों में ही हिंसा होती तो फिर पहले यह नहीं कहा जाता कि दूसरे जीवकी हिंसा हो या नहीं हो जिसके परिणामोंमें रागाद्वषादि संक्लेशभाव हैं वह हिंसाका भागीदार हो जाता है। इससे भलीभांति सिद्ध है कि वाह्यपदार्थों में हिंसा नहीं है किंतु प्रमादयुक्त परिणामोंमें ही है इसलिये परिणामोंको ही प्रमादरहित बनानेसे हिंसाभावसे जीव मुक हो जाता है । जबतक प्रमादयुत परिणाम है तबतक वाह्यप्राणोंका घात हो या न हो हिंसा अवश्य लगेगी । इस कथनके अनुसार यद्यपि वाह्यपदार्थों से हिंसाका कोई संबंध नहीं है फिर भी उन समस्त पदार्थों से संबंध नहीं करना चाहिये जो कि परिणामोंको क्लेशित बनाने में सहकारी पड़ते हों । परिणामोंको विशुद्ध रखनेके लिये हिंसाके निमितकारणोंका भी त्याग कर देना योग्य है । संसारमें हिंसाका निमित्तभूत आरंभ है, इसलिये आरंभसे मुक होनेकी पूर्ण चेष्टा करना चाहिये ।।
निश्नय और व्यवहारसे सिद्धि निश्चयमबुद्ध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते। नाशयति करणचरणं सवहिःकरणालसो बालः॥५०॥
अन्वयार्थ -( यः ) जो ( निश्चयं अवुद्धयमानः । निश्चयनयको नहीं समझता हुआ (निश्चयतः ) निश्चयरूपसे ( तमेव ) उसका ही निश्चय तत्वको ही ( संश्रयते ) आश्रय करता है, स्वीकार करता है ( सः वालः ) वह मूर्ख ( वहिःकरणालसः ) वाह्यक्रियारूप चारित्रमें आलसी-प्रमादी ( ‘सन्' ) होता हुआ ( करणचरणं ) क्रियारूप चारित्रको व्यवहारचारित्रको नाशयति ) नष्ट कर देता है ।
विशेषार्थ-ऊपरके श्लोकमें यह बात प्रगट की गई थी कि हिंसा वास्तवमें निज परिणामोंकी अशुद्धतामें ही है; वाह्यपदार्थों में नहीं है । यहांपर यह बतलाते हैं कि जो सर्वथा निश्चयनयका अवलम्बन कर वाह्यचारित्र-व्यवहारचारित्रकी परवा नहीं करते हैं; जिनका यह सिद्धांत है कि बाह्यक्रियाओंमें क्या धरा है परिणामोंको ही ठीक रखना चाहिये, उन लोगोंको निश्चय
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