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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
विशिष्ट मनवचनकायकी प्रवृत्तिके केवल शरीरके अंग भंग हो जाने अथवा जीवके मर जाने मात्रसे हिंसा होती हो तो जिन सजनोंका हिंसा करनेका सर्वथा परिणाम जीवके सतानेका नहीं है उनसे जो प्रमादवश या दृष्टिदोषसे सूक्ष्म जीवोंका बध हो जाता है तो उन्हें भी उस जीवकी हिंसाका दोष लगना चाहिये परन्तु उन्हें लगता नहीं है; क्योंकि उनके परिणाम हिंसा करनेके सर्वथा नहीं हैं और न लोकमें ही निरपराधी पुरुष-उनके द्वारा जीवबध होनेपर भी दंडित अथवा दोषी ठहराये जाते हैं । डाक्टरका अभिप्राय यही रहता है कि रोगीको जल्दी आराम हो, उसकी हित कामनासे वह उसके शरीरमें चीरा देता है, परन्तु दैवयोगसे चीरा देते देते यदि नस्तरके कड़े आघातसे रोगीकी मृत्यु हो जाय तो डाक्टर उसका मारनेवाला कभी नहीं कहा जाता, इसलिये हिंसा वही कही जाती है जहां अभिप्रायपूर्वक जीवका बध किया जाता है : अभिप्रायपूर्वक जीवका बध वहीं हो सकता है जहां सकषायप्रवृत्ति है । यदि हिंसामें भावोंकी मुख्यता न हो अथवा हिंसामें सकषायप्रवृत्ति कारण न हो तो पिता पुत्रकी हितकामना रख कर उसे पाठशाला भेजता है, पुत्र नासमझीके कारण पढ़ने नहीं जाना चाहता, पिता उसे मार पीटकर फटकार देकर एवं अनेक प्रकारका भय दिखाकर पाठशाला भेजता है, ऐसा करने में पुत्रके परिणामोंमें संक्लेश होनेसे उसके भावोंकी हिंसा होती है; परन्तु उसका दोष पिताके अधीन नहीं है, कारण पिताका अभिप्राय दुरभिप्राय नहीं है । इसीप्रकार यदि कोई सदुपदेष्टा किसी व्यसनीको व्यसन छुड़ानेके अभिप्रायसे डर दिखावे, उसके दुष्कार्यकी निंदा करे और उससे उस व्यसनीके भाव पीड़े जांय तो उसका दोष उस धर्मोपदेष्टाको नहीं लग सकता । इसीप्रकार त्रस और स्थावर हिंसाके सर्वथात्यागी हरप्रकारसे जीवरक्षाका प्रयत्न करनेवाले श्रीमुनिमहाराज अकस्मात् उनके द्वारा सूक्ष्म जीवका बध होनेपर भी हिंसाके भागीदार नहीं होते । यदि किसी पुरुषने अच्छे अभिप्रायसे
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