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दुःख हो, संताप हो, कष्ट हो, उसीका नाम हिंसा है । जीवके परिणामोंकी पीड़ाको छोड़कर हिंसा और कोई वस्तु नहीं है, इसीका नाम भाव हिंसा है । जिसमें आत्मीयभावोंकी हिंसा होती है उसे ही भावहिंसा कहते हैं । वास्तवमें हिंसाका स्वरूप यही है और इतना ही है द्रव्यहिंसाको - शरीरके किसी अवयवकी अथवा समस्त शरीरकी हिंसाको ( आयु-विच्छेदको ) भी भावहिंसा के होनेसे ही हिंसामें गर्भित किया गया है। जो कोई किसीको शारीरिक कष्ट पहुंचाता है वहां आत्मा के परिणामोंको दुःख पहुंचता है इसलिये द्रव्यहिंसा हिंसामें गर्भित हो चुकी । इसीप्रकार जिस जिस कार्यमें आत्माके परिणामोंकी हिंसा होती हो वे सब हिंसामें गर्भित हैं, जैसे-झूठ बोलना, चोरी करना, कुशील सेवन करना, तृष्णा बढ़ाना, हंसना, रोना, राग-द्वेष करना इत्यादि सब हिंसाके ही स्वरूप हैं, क्योंकि झूठ बोलना आत्माका निजधर्म नहीं है, आत्माका धर्म सत्य है उस आत्मीय सत्य परिणामके रहते हुए जो वचनवर्गणा खिरती है वह भी सत्य के नामसे कही जाती है । जो कोई झूठ बोलता है उसके आत्मासे सत्यरूप निजी परिणाम नष्ट होता है अथवा असत्यरूप विकार अवस्थामें आ जाता है । आत्माके परिणामोंका स्वस्वरूपमें नहीं रहना अथवा स्वस्वरूपसे च्युत होकर विकार अवस्थाको धारण कर लेना इसीका नाम भावोंकी हिंसा है, इसी - प्रकार जितने भी आत्माके निज स्वरूपको विकृत बनानेवाले कार्य हैं वे सब हिंसा गर्भित हैं । चोरी करना, कुशील सेवन करना आदि भी आत्माके अचौर्यस्वरूप और ब्रह्मचर्यस्वरूप निजस्वरूपका नाश कर उसे चोरी तथा कुशीलादिरूप विकारी बना देते हैं इसीलिये चोरी आदि सभी कार्य हिंसा गर्भित हैं । उपर्युक्त कथनका सार यह है कि जितने भी विकृत भाव हैं वे सब हिंसास्वरूप हैं इसलिये संसार में जितने भी पापोंके भेद प्रभेद कहे जाते है वे सब हिंसाके ही दूसरे नाम हैं ।
सकती है कि 'जब सभी पाप हिंसास्वरूप हैं
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यहां पर यह शंका हो
[ पुरुषार्थसिद्ध, पाय
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