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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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आगे और भी देखिये - " अकलंकवचोम्भोधे रुद्द येन धीमता । न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनंदिने ॥" आचार्य कहते हैं कि अकलंकस्वामी के वचनरूपी समुद्र से जिन बुद्धिमान श्रीमाणिक्यनंदि आचार्यने न्यायविद्यामृतको लिया, उन माणिक्यनंदि मुनिराजके लिये मैं नमस्कार करता हूँ । उत्तरोत्तर प्रमाणता एवं पूज्यताका इस श्लोक पूरा परिज्ञान हो जाता है । इस प्रमाणतासे वचनोंकी अनुगामिता एवं मान्यता सिद्ध होती है । यही कारण है कि जैन सिद्धांतका समस्त निरूपण एक श्रृंखला में चला आ रहा है, उसमें कहीं पूर्वापर विरोध नहीं है । जैनसिद्धांतने जिन पदार्थों का विवेचन किया है वे सब युक्ति और आगमसे अविरुद्ध हैं, इसीलिये वे प्रमाणभूत हैं । युक्ति, शास्त्रसे उनकी अविरुद्धता इसलिये सिद्ध है कि उनमें प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाण द्वारा कोई विरोध नहीं आता । इसप्रकार जैनसिद्धांतमें अनेकांतस्वरूप वस्तुका जो प्रतिपादन किया गया है, वह सब सर्वज्ञकथित है । इसलिये उसमें 'यह सत्य है क्या, अथवा असत्य है क्या ?" ऐसी शंका कभी नहीं करना चाहिये । जैनागम जिनेंद्र द्वारा कहा हुआ है, वह जिस रूपमें कहा गया है उसी रूपमें ठीक है । जो स्वरूप जैनागममें वस्तुओंका बतलाया गया है, वह उसीप्रकार है अन्यथा प्रकार कभी हो नहीं सकता । जो कुछ छद्मस्थोंको अन्यथा प्रतीति कभी किसी पदार्थ में होती है वह उनकी समझ की भूल है । इसलिये सदा जैनागममें दृढ़ श्रद्धान रखना, थोड़ी भी शंकितवृत्ति नहीं रखना, इसी परिणामका नाम निःशंकित अंग है | यह सम्यक्त्वका प्रथम एवं प्रधान अंग है ।
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यहां पर यह प्रश्न खड़ा हो सकता है कि 'क्या कभी किसी पदार्थ का स्वरूप समझ में न आनेपर भी शंका नहीं उठानी चाहिये जबकि छद्मस्थ जीवोंका ज्ञान परिपूर्ण नहीं है तब किसी पदार्थ की पूर्ण खोज हो जाना नितांत कठिन है, वैसी अवस्थामें अल्पज्ञ जीवोंके परिणामोंमें उस पदार्थसंबंध में शंकाका उत्पन्न होना एक स्वाभाविक बात है; ऐसी अवस्थामें
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