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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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सम्यक्त्वपूर्वक नहीं होती है किंतु मिथ्यात्वपूर्वक ही होती है जैसे कि"अस्त्यशुद्धोपलब्धिश्च तथा मिथ्यादृशां परम्” इस श्लोकार्धसे स्पष्ट है ।
उपर्युक कथनसे इस बातका पूर्ण खुलासा होता है कि सम्यग्दृष्टिके अशुद्धोपलब्धि न होनेसे उसके कर्मफलचेतनायें नहीं होती । सम्यग्दृष्टिके सदा शुद्धोपलब्धि ही होती है, अन्यथा उसके सम्यक्त्वका भी अभाव मानना पड़ेगा। यह बात ऊपर स्पष्ट करचुके हैं; जैसा कि-"शुद्धा चेदस्ति सम्यक्त्वं न चेच्छुद्धा न सा सुदृक्” इस पूर्व कथित श्लोकार्धसे स्पष्ट है । सम्यग्यदृष्टिके उपलब्धि सदा शुद्ध ही होती है, इस बातका पंचाध्यायीकारने अनेक श्लोकों द्वारा शंका समाधानपूर्वक पुष्ट किया है। यथा“सत्यं शुद्धास्ति सम्यक्त्वे सेवाशुद्धास्ति तद्विना । सत्यबन्धफला तत्र सैव बन्धकलान्यथा ॥२१७॥" ___ अर्थात् सम्यक्त्वके सद्भावमें शुद्धात्मोपलब्धि ही होती है और उसमें बन्ध नहीं होता, तथा सम्यक्त्वके अभावमें ही अशुद्धोपलब्धि होती है, उसीका फल बंध कहा गया है । यह बात ऊपर खुलासा की जा चुकी है कि बंध अशुद्धोपलब्धिमें ही होता है, जहां बन्धफला-अशुद्धोपलब्धि है, वहीं कर्मचेतना कर्मफलचेतनायें होती हैं । सम्यक्त्वके सद्भावमें सदा शुद्धोपलब्धि ही रहती है, इसलिये सम्यग्दृष्टि केवल ज्ञानचेतनाका ही स्वामी है।
सम्यग्दर्शनके आठ अगोंमें प्रथम निःशंकित अंगका स्वरूप सकलमनेकांतात्मकमिदमुक्त वस्तुजातमखिलज्ञैः। किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शंकेति कर्तव्या ॥२३॥
अन्वयार्थ-( इदं ) यह ( सकलं ) सम्पूर्ण ( वस्तुजातं) वस्तुसमूह ( अखिलज्ञ :) सर्वज्ञदेवने ( अनेकांतात्मकं ) अनेकांतस्वरूप ( उक्त) कहा है। (किमु ) क्या ( सत्यं ) सत्य है ( वा ) अथवा ( असत्यं ) असत्य है ( जातु ) कभी ( इति ) इसप्रकार ( शंका ) शंका-संदेह (न ) नहीं ( कर्तव्या ) करना चाहिये ।
विशेषार्थ-जैनधर्म अथवा जैनागम सर्वज्ञदेवके द्वारा कहा गया है,
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