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[ पुरुषार्थसिद्धथ पाय
"वैषयिकसुखे न स्याद् रागाभावः सुदृष्टिनां । रागस्याज्ञानभावत्वात् अस्ति मिथ्याशः स्फुटं।"
__सम्यग्दृष्टिके रागभाव नहीं होता किंतु मिथ्यादृष्टिके ही होता है; इसलिये उसकी समस्त क्रियायें कर्मोदयजनित हैं, वे रागपूर्वक नहीं समझी जातीं । ऐसी अवस्थामें उसके रागपूर्वक बंध करनेवाली कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाभी नहीं होती। ऊपरके समस्त श्लोकोंसे यह परिणाम निकल चुका है कि सम्यग्दृष्टि की स्वोपलब्धि चाहे उपयुक्त हो चाहे अनुपयुक्त हो, चाहे वह भोगसेवनमें उपयुक्त हो, चाहे अन्य क्रियाओंमें उपयुक्त हो परन्तु वह न तो रागी है और न बंध करनेवाला ही है । तथा उसकी उपलब्धि प्रत्येक अवस्थामें शुद्ध है, सम्यग्दृष्टि सदा शुद्धोपलब्धिवाला है। मिथ्यादृष्टिकी उपलब्धि ही अशुद्ध होती है, इसलिये वह बंध करनेवाला है और उसीके कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना होती है । सम्यग्दृष्टिके अशुद्धोपलब्धि भी कभी नहीं होती, यह बात ऊपर सप्रमाण कही गई है । बंध भी नहीं होता, इसलिये उसके कर्मचेतना कर्मफलचेतनायें भी नहीं होती, यह बात नीचेके श्लोंकोंसे भी प्रगट होता है"उपलब्धिरशुद्धासा परिणामक्रियामयी । अर्थादोदयिकी नित्यं तस्माद्वन्धफला स्मृता ॥२१२॥ अस्त्यशुद्धोपलब्धिः सा ज्ञानाभासाच्चिदन्वयात् । न ज्ञानचेतना किंतु कर्मतत्फलचेतना ॥२१३॥" ___ अर्थ ऊपर किया जा चुका है । इस अशुद्धोपलब्धिका स्वामी मिथ्यादृष्टि ही बतलाया गया है । इस प्रकरणका पूर्वापर स्वाध्याय करनेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है । प्रमाणके लिये एक श्लोक उन्हीं श्लोकोंके आगे का नीचे दिया जाता है"इयं संसारिजीवानां सर्वेषामविशेषतः । अस्ति साधारणी वृत्तिर्न स्यात्सम्यक्त्वकारणम् ॥२१४॥"
अर्थात्-अशुद्धोपलब्धि संसारी मिथ्यादृष्टि जीवोंके होती है, क्योंकि वह ज्ञानाभास अवस्थामें होती है: यह बात ऊपरके श्लोकमें प्रगट कर दी गई है। ज्ञानाभास मिथ्यादृष्टीके ही कहा गया है। जहां अशुद्धोपलब्धि है वहीं कर्मचेतना कर्मफलचेतनाएं होती हैं । इसप्रकारकी अशुद्धोपलब्धि
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