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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
है; जैसे 'यह बालक १ वर्षका है। यहांपर यह बात कम जानकारकी समझमें भी आजाती है कि बालकके साथ जो एक वर्षका प्रयोग है, वह बालकसे भिन्न पदार्थ है । यदि बालककी पर्यायोंका नाम ही एक वर्ष होता, तो फिर यह व्यवहार नहीं होता कि 'बालक १ वर्षका हो गया है। किंतु ऐसा होता कि 'बालक १ वर्ष हैं। इसलिये कालके स्वतन्त्र प्रयोग और द्रव्योंके साथ जुदा प्रयोग होनेसे उसकी सत्ताका निश्चय किया जाता है। उसी कालद्रव्य के उपचरितप्रयोग भूतकाल, भविष्यत्काल, वर्तमानकाल होते हैं । ये उसके स्वतन्त्रप्रयोग हैं और पदार्थ के साथमें भी इनको प्रयोग आता है; जैसे-यह आजकल ही पैदा हुआ है, यह बहुत वर्षों को है, यह अभी बहुत कालतक ठहरेगा। ये सब प्रयोग कालद्रव्यकी स्वतन्त्र सत्ताको सिद्ध कराते हैं । इस प्रकार युकिसे कालद्रव्य की सत्ता सहज ही समझमें
आ जाती है, तो आगमप्रमाणसे बतलाई गई कालद्रव्यकी असंख्यात संख्या मानने में जो 'अविश्वास रखते हैं, वे भूलते हैं; क्योंकि जो मूलमें वस्तु न हो उसका जगत में व्यापकरूपसे शब्दप्रयोग एवं उसके निमित्त से होनेवाला व्यवहार कभी नहीं हो सकता।
छठा जीवपदार्थ है। जीवका लक्षण चेतना है। जीवका स्वरूप "अस्ति पुरुषश्चिदात्मा” इस श्लोकमें कह चुके हैं; इसलिए यहांपर नहीं लिखते । इस जीवका अजीव ( कर्म ) के साथ सम्बन्ध होनेसे आस्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष ये पांच तत्व उन्हीं दोनोंके पर्यायस्वरूप होते हैं । इसप्रकार जीव अजीव और पांच उनकी उत्तरपर्यायें, सब मिलाकर सात तत्त्व कहलाते हैं । उनमें आस्रव और बंध ये दो पर्यायें तो अशुद्ध जीवकी हैं तथा संवर निर्जरा और मोक्ष ये तीन पर्यायें शुद्ध जीवकी हैं। मोक्षपर्याय परमशुद्ध जीवकी है। इनमें आस्रव और बंध संसारके कारण हैं
१. श्वेतांबरजैन कालद्रव्यको नहीं मानते हैं । अन्यान्य दर्शनवाले तो प्रायः बहुभाग कालद्रव्यको स्वीकार करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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