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________________ ११२ ] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय उसका मूल कारण यही कालद्रव्य है; क्योंकि समय कहो अथवा काल कहो, ये दोनों एक ही अर्थके वाचक हैं । यह कपड़ा इतने समयका है अथवा यह इतने कालका है । यह बालक वीर संवत् २४४० के समयका है अथवा यह बालक उस कालका है। दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है । कालद्रव्यकी प्रत्येक क्षणवर्ती पर्यायका नाम जब समय है तो उसका व्यवहार प्रत्येक द्रव्यकी क्षणवर्ती पर्यायके साथ होता है। क्योंकि हर-एक द्रव्यका परिणाम समय समयमें ही होता है, और उसमें काल उदासीन कारण है। इसलिये वास्तवमें समय कालद्रव्यकी एकक्षणवर्ती पर्याय होनेपर भी प्रत्येक द्रव्यकी क्षणवर्ती पर्यायोंके साथ व्यवहारमें आता है । यह 'उपचरित प्रयोग है । यही उपचरित प्रयोग पल, घंटा, घड़ी, मुहूर्त, दिनरात, महीना, वर्ष, युग, कल्प इत्यादि नामोंसे व्यवहारमें आता है । यथार्थदृष्टि से यदि विचार किया जाय, तो ये पल घड़ी घन्टा आदि कुछ भी नहीं हैं किंतु उस कालद्रव्यकी प्रतिक्षणवर्तीपर्याय जो समय है, उन्हीं समयोंकी क्रमसे अनेक संख्या बीतनेपर पल घन्टा घड़ी आदि नाम पड़ते जाते हैं । अन्यथा २४ घण्टोंका दिनरात होता है, और ३० दिनका महीना होता है, १२ महीनोंका वर्ष होता है; ये दिनरात, महीना, वर्ष आदि मूलमें कुछ तत्व नहीं है, किंतु समय समयकी पर्याय होनेसे अनेक समयों के बीतनेपर घण्टा नाम कहलाया, और २४ घण्टोंमें जितने समय होते हैं उतने क्रमसे बीतनेपर दिनरात कहलाया, ३० दिनरातमें जितने समय होते हैं उतने समय बीतनेपर महीना कहलाया, १२ महीनोंमें जितने समय होते हैं उनके बीतनेपर वर्ष कहलाया। इसीलिये उन घण्टा, दिन, महीना, वर्ष आदि सबके साथ भी 'समय' व्यवहृत होता है; जैसे-एक घण्टा समय हो गया, एक वर्षका समय हो गया, छह महीनेका समय १. यथार्थ में तो वह न हो, परन्तु प्रयोजन और निमित्तवश उसका व्यवहार दूसरे में किया जाय, उसे ही उपचरित कहते हैं । “मूलाभावे प्रयोजने निमित्त च उपचारः प्रवर्तते” अर्थात् मूलपदार्थके स्थान में दूसरे पदार्थका व्यवहार जहां होता है, वद्वां उपचार कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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