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________________ १० पुरुषार्थसिद्धयुपाय आचार्य धरषेण लिखित परम्पराके स्रोत ___ आचार्य धरषेण द्वादशांगवेत्ता तो नहीं थे किन्तु अंगांग ज्ञानी थे । भगवान् महावीर स्वामीके निर्वाण होनेके ६०० वर्ष तक तो धर्म होना और जिनवाणीका रहस्य मौखिक रूपमें ही बताया जाता था। अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु हुए हैं। उनके पीछे लोगोंमें स्मृति शक्ति घटने लगी। पदार्थ समझकर धारणा कम हो गई अतः आचार्य धरणने अपने सिद्धांत ज्ञानका प्रसार और जगत्के मनुष्योंकी कल्याण भावनाको ध्यानमें रखकर आचार्य भूतबलि और आचार्य पुष्पदंतको बुलाकर और उनके विशेष ज्ञानकी परीक्षा लेकर उन्हें अपने महान् सिद्धान्त ज्ञानका रहस्य उन दोनों आचार्य शिष्योंको पूर्ण रूपसे बता दिया, फिर उन्होंने लिखित रूपमें षट्खंडागमकी रचना की। उसके बाद आचार्य कुन्दकुन्द, वीरसेन, समन्तभद्र, उमास्वामी, अकलंक, देवनन्दि, पूज्यपाद पात्रकेसरी ( विद्यानन्दि ), सोमदेव, जिनसेन, अमृतचन्द्र, नेमिचन्द्र, गुणभद्र आदि वीतरागी स्वात्म साधनामें लगे हुये महातपस्वी आचार्योंने महान् गम्भीर और सूक्ष्म तत्त्व प्रतिपादक चारों अनुयोगोंके शास्त्रोंकी रचना पर्व आचार्योंके रचित शास्त्रोंके आधारसे की है। यह शास्त्र रचनारूप जिनवाणी अक्षण्ण रूपमें परम्परासे चली आ रही है । इस समय मोक्ष मार्गदर्शक यही जिनवाणी है। इसी जिनवाणीके वचनोंसे मुनि धर्म और श्रावक धर्म प्रचलित है। सम्यग्दर्शनको पहचान सम्यग्दर्शन मोक्ष प्राप्तिका मूल साधक गुण है । उसकी जो सर्वज्ञ और मनःपर्ययज्ञानी कर सकते हैं। निश्चय सम्यग्दर्शन तो सात प्रकृतियोंके उपश्रम क्षयोपशम और क्षयसे ही होता है। वह आत्मीय गुणका विकास है । वर्तमानमें व्यवहार सम्यक्त्व ही मुनिराजोंमें और श्रावोंमें मोक्ष साधक है। इसकी पहचान देवशास्त्र गुरुओंमें अटल दृढ़ श्रद्धासे होती है। भगवानकी हार्दिक भक्ति, मुनियों में पूर्ण श्रद्धा भक्ति और शास्त्रोंमें पूर्ण श्रद्धा जिसके है वही व्यवहार सम्यग्दृष्टि है । वर्तमानके मुनि भी २८ गुणोंके पालक हैं । चतुर्थ कालके मुनियोंके समान ही उनकी भक्ति और श्रद्धा करना प्रत्येक श्रावकका कर्तव्य है। इस हीन संहननमें भी वर्तमान मुनिगण परीषहों और उपसर्गोको सहन करते हैं और महाव्रतोंका पालन करते हैं । शास्त्रोंमें यहाँ तक लिखा है कि चौथे कालके मुनि बहुत कालमें अपने भावोंकी विशुद्धि कर पाते हैं, पंचम कालके मुनि उतनी विशुद्धि अल्प समयमें ही कर लेते हैं । भावलिंगकी पहचान सर्वज्ञ और मनःपर्ययज्ञानी कर सकते हैं इसलिये हम लोग तो उनके २८ गुणोंको एवं उनकी मुनिचर्याको देखकर पीछी, कमण्डलु इन बाह्य चिह्नोंको देखकर नग्नदिगम्बर वर्तमान मुनिराजोंके चरणोंमें अपना मस्तक रखकर बड़ी श्रद्धा भक्तिसे उनके दर्शन, उनकी वैयावृत्ति, उनकी धर्म देशनाका लाभ लेते हुए अपना कल्याण करते हैं यही हमारे जीवनकी सफलता है। शास्त्रोंके वचनोंमें पूर्ण श्रद्धा रखकर उनके अनुसार अपना सम्यक्त्व, अपना ज्ञान, अपना चारित्र दृढ़ बनाना चाहिये यही व्यवहार सम्यक्त्व है और यही व्यवहार सम्वक्त्व निश्चय सम्यक्त्व प्रगट करनेका साधन है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय इस शास्त्रका नाम पुरुषार्थसिद्धयुपाय है। यथा नाम तथा गुण इस लोकोक्तिके अनुसार इस शास्त्रमें पुरुषार्थसिद्धिका उपाय बताया गया है। पुरुषार्थ चार हैं-१-धर्म, २-अर्थ, ३-काम, ४-मोक्ष। इनमें तीन पुरुषार्थ तो गृहस्थ करते हैं और चौथा मोक्ष पुरुषार्थ मुनिगण करते हैं। पुरुष का प्रयोजन पुरुषार्थ है और उसकी सिद्धिका उपाय पुरुषार्थसिद्धयुपाय है। इसलिये ग्रन्थका नाम यथार्थगुण वाचक है, शंका यह होती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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