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प्रस्तावना
पूर्वाचार्यों द्वारा रचित शास्त्रोंकी विशुद्ध प्रमाणित महत्ता
पूर्वाचार्योंके वचन प्रमाण क्यों हैं ?
वक्तुः प्रमाणात् वचनं प्रमाणम्, यह शास्त्र और लोक सम्मत निर्णय है कि वक्ता यदि प्रामाणिक है, निष्पक्ष सत्यभाषी है। रागद्वेष रहित है तो उसकी बात सत्य प्रमाण मानी जाती है। दिगम्बराचार्योंने शास्त्रोंकी रचना की है वे संसार विरक्त तपस्वी वीतराग महर्षि थे । इसलिये उनके द्वारा रचे हुये सभी शास्त्र पूर्ण प्रमाण हैं। इसके अतिरिक्त विशेष महत्त्वपूर्ण प्रमाणकी कसौटी यह है कि उन महर्षियोंने सर्वज्ञ तीर्थंकरकी दिव्यध्वनिके आधारपर ही शास्त्रोंकी रचना की है । शास्त्रोंकी रचनाका दूसरा मूलस्रोत गणधर देव और श्रुतकेवलीके वचन हैं । जैसाकि भगवत्कुंदकुंद स्वामीने समयसार प्राभृतकी रचनाके प्रारम्भमें सिद्धोंको नमस्कार करते हुए कहा है कि
"वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं" अर्थात्--कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जैसा श्रुतकेवली भगवान्ने बताया है उसीके अनुसार मैं समयप्राभृतकी रचना करता हूँ। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि शास्त्रोंकी रचनाका मूल आधार श्रुतकेवलीके वचन हैं । श्रुतकेवलियोंका ज्ञान समस्त तीन लोकोंके स्वरूपको सर्वज्ञके ज्ञानके समान जानता है। भेद इतना है कि सर्वज्ञका ज्ञान प्रत्यक्ष है, श्रुतकेवलीका ज्ञान परोक्ष है । सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्रने गोम्मटसारमें कहा है कि
सुद केवलं च णाणं दोण्णिवि सरिसाणि होति बोहादो।
सुदणाणं तु परोक्खं पच्चक्खं केवलं गाणं ॥ अर्थ-श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ज्ञान समान रूपसे सभी पदार्थोंको-चारों गतियोंको सनाड़ी, असंख्यात द्वीप समुद्र, सिद्धशिला आदि तीनों लोकोंके पदार्थोंको जानते हैं किन्तु भेद यह है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष जानता है, श्रुतज्ञान परोक्ष जानता है । इसलिये वीतराग महर्षि श्रुतकेवलीके वचन सर्वज्ञवाणीके समान ही पूर्ण प्रमाण हैं। उन्हीं श्रुतकेवलीके वचनोंके आधार समस्त पूर्वाचार्योने शास्त्रोंकी रचना की है अतः सभी शास्त्र यथार्थ वस्तु तत्त्वके प्रतिपादक हैं। वे पूर्ण प्रमाण हैं।
इतना खुलासा समझ लेना चाहिये कि केवली और श्रुतकेवलीका ज्ञान समान बताया गया है वह बहत स्थूल कथन है । वास्तवमें तो केवली भगवान्का ज्ञान भूत, भविष्यत्, वर्तमान सभी पदार्थों को, उनके समस्त गुणोंको और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायोंको पूर्णरूपसे प्रत्यक्ष जानता है श्रुतकेवलीका ज्ञान उस केवलीके ज्ञानके अनन्तभाग भी नहीं जानता है । एक परमाणुके अनन्त अंशोंको केवली प्रत्यक्ष देखते और जानते हैं । उनका ज्ञान पूर्ण निरावरण है, श्रुतकेवलीका ज्ञान आवरण सहित है। वह क्षयोपक्षय है, केवलीका ज्ञान क्षायिक है। दोनोंके ज्ञानों में आकाश पाताल जैसा अन्तर है । फिर भी श्रुतकेवली परोक्ष रूपसे सभी त्रिलोकवर्ती पदार्थोंको स्थूल रूपमें जानते हैं इसलिये उनके वचन वस्तु तत्त्वका यथार्थ बोध कराते हैं इसलिये भगवत्कुन्दकुन्द स्वामीने उनके वचनोंके अनुसार ही शास्त्र रचना करनेकी प्रतिज्ञा की है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि दिगम्बराचार्योंने अपने स्वतन्त्र मन्तव्य अथवा अपनी समझके अनुसार शास्त्रोंकी रचना नहीं की है किन्तु गणधरदेव और श्रुतकेवलीके वचनोंके आधारसे की है।
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