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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [६७ wowwwwwwwwwwwwwwwwvirosisemuonnoncereroewinnen सम्यकचारित्र भी परमावगाढ़ श्रेणीतक नहीं पहुंच सकेगा। इसलिये क्षीणकषायमें सम्यकचारित्रके पूर्ण होनेपर भी सयोगकेवली तक योगशक्ति विभावरूप धारण करती रहती है, तबतक सम्यकचारित्र भजनीय बना रहता है । इसीसे सम्यग्ज्ञान होनेपर सम्यकचारित्रको भजनीय कहा गया है। जहां सयोगीके अंत होने पर योगगुण स्वभाव अवस्थामें परिणमन करने लगा, वही अयोगी गुणस्थानमें आत्मा अवशिष्ट कर्मों का, व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामा परमशुल्कध्यानसे, एकदम ध्वंस करके अंतमुहर्तमात्र में अविनश्वर धाम सिद्धालयमें जा विराजता है ।। __इसलिये जैनसिद्धांतमें जो रत्नत्रयको मोक्षप्राप्तिका कारण बतलाकर तीनोंका क्रम रक्खा है, वही युक्तियुक्त है । उस क्रमके विपरीत यदि पहले सम्यग्ज्ञानको उपादेय कहा जाय, पीछे सम्यग्दर्शनको कहा जाय, अथवा सम्यग्ज्ञानके पूर्व सम्यकचारित्रको उपादेय बतलाया जाय, तो वह न सिद्ध ही हो सकता है और न उपादेय श्रेणीतक ही पहुंच सकता है। विपरीत क्रम युक्ति प्रमाण दोनोंसे बाधित है । इसलिये “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः” यही दिगम्बर जैनसिद्धांत-निर्दिष्ट क्रम उपादेय एवं मोक्षका साधक है। सम्यग्दर्शनका लक्षण और स्वरूप जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यं । श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ॥२२॥ अन्वयार्थ-( जीवाजीवादीनां ) जीव अजीव आदिक ( तत्त्वार्थानां ) तत्त्वोंका ( विपरीताभिनिवेशविविक्त) मिथ्या अभिप्रायरहित-मिथ्याज्ञानरहित-जैसेका तैसा ( सदैव ) सदा ही ( श्रद्धानं ) श्रद्धान-विश्वास-अभिरुचि-प्रतीति ( कर्तव्यं ) करना चाहिये, ( तत् ) वही श्रद्धान ( आत्मरूपं ) आत्माका स्वरूप है, अथवा आत्मस्वरूप है अर्थात् आत्मासे भिन्न पदार्थ नहीं है। विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनका लक्षण यहांपर तत्त्वार्थश्रद्धान किया गया है. १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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