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________________ [पुरुषार्थसिद्धय पाय wwwwww सम्यकचारित्र भजनीय बना रहता है । सम्यकचारित्र पांचवेंसे व्यक्त होता है और बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थानमें पूर्ण हो जाता है। यहांपर यह शंका हो सकती है कि 'सम्यकचारित्र जब क्षीणकषायमें ही पूर्ण हो जाता है और सम्यग्ज्ञान तेरहवेंमें पूर्ण होता है, तो इससे तो यह बात सिद्ध होती है कि सम्यक्चारित्र होने पर सम्यग्ज्ञान भजनीय है, परंतु सम्यग्ज्ञान के पीछे चारित्रको भजनीय कहा गया है यह कैसे हो सकता है ?' इसका उत्तर यह है कि सम्यकचारित्र यद्यपि बारहवें गुणस्थान तक पूर्ण हो जाता है परंतु जिसे परमावगाढ़ चारित्रकी पूर्णता कहते हैं जोकि मोक्षप्राप्तिमें साक्षात ( पूर्वक्षणवर्ती ) कारण पड़ता है, उसकी पूर्ति चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थानमें ही होती है; उसके पहले नहीं होती। क्षीणकषायमें प्रतिबंधी कषायोंके सर्वथा नष्ट हो जानेसे यद्यपि पूर्णचारित्र प्रगट हो जाता है परंतु फिर भी योग आदिक शकियोंके विभावपरिणमनके रहनेसे एवं समस्त आत्मीयगुणोंमें तादात्म्यसंबंध ( एकत्वभाव ) होनेसे चारित्र भी चरम विशुद्धिके लिये भजनीय बना रहता है । सम्यकचारित्रकी परम ( चरम ) श्रेणीकी महाविशुद्धि यही है कि समस्त आत्माके गुणोंका विशुद्ध हो जाना । जहांतक एक भी गुण विभाव अवस्थामें रहेगा, वहांतक १. इस चरमविशुद्धि एवं परमावगाढ़ताको संबंधविशुद्धिके नामसे कहा जाय तो और भी उत्तम है। कारण चारित्र तो परम विशुद्ध एवं परम पूर्ण क्षीणकषायमें ही हो चुका, परन्तु दूसरे गुणोंकी पूर्ण निर्मलता ( स्वभाव अवस्था) प्रगट न होनेसे केवल संबंध होनेसे सम्यक्चारित्रकी गरमावगाढ़ताका निषेध किया गया है इस संबंधजनित दोषको छोड़कर चारित्रमें निश्चयसे कोई दोष नहीं रहा है । ऐसे दोषको आनुषंगिकदोषके नामसे कहा जाता है। जैसे किसी परम सज्जन भद्रपुरुषका पुत्र जुआ आदि व्यसनोंमें फंसकर पकड़ा जाय तो उसके उस भद्र पिताको भी पकड़ लिया जाता है, वास्तव में पिता तो सर्वथा निर्दोष है परन्तु सम्बन्धी होनेसे उसे भी उस दोषी पुत्रके साथ में फंसा लिया जाता है। इसीप्रकार प्रकृत में समझ लेना चाहिये । योगके दोषी होनेसे चारित्र भी दोषो समझा गया है, वास्तवमें वह दोषी नहीं है और सभी गुणोंके अभिन्न होनेसे एक गुणकी अशुद्धि में दूसरा निर्मलगुण भी अपनेको स्वतन्त्र मोक्षस्थान पर ले भी तो नहीं जा सकता । इसलिये सबोंकी निर्मलता होनेपर ही पूर्ण निर्मलता समझो जायगो । जिसप्रकार शरीरके किसी एकदेशमें कोई रोग उत्पन्न हो जाय तो कहा यही जायगा कि 'इसका शरीर रोगी है। समस्त शरीरमें रोग न होनेपर भी अभिन्नतावश उसे भी रोगीकी श्रेणी में शामिल होना पड़ता है; उसीप्रकार प्रकृतमें समझ लेना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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