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सम्यग्दर्शन ही प्रथम क्यों प्राप्त करना चाहिये
तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ॥ २१ ॥
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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
अन्वयार्थ – ( तत्र ) उन तीनों में ( आदौ ) पहले ( अखिलयत्नेन ) संपूर्ण प्रयत्नोंसे ( सम्यक्त्वं ) सम्यग्दर्शन ( समुपाश्रयणीयं ) भलेप्रकार प्राप्त करना चाहिये; ( यतः ) क्योंकि ( तस्मिन् सति एव ) उस सम्यग्दर्शन के होनेपर ही (ज्ञानं ) सम्यग्ज्ञान (च ) और (चरित्रं सम्यक् चारित्र (भवति) होता है ।
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सम्यग्ज्ञान
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विशेषार्थ - तीनोंमें सबसे प्रथम सम्यग्दर्शनको ही प्राप्त करनेयोग्य बतलाया गया है । इसके लिये हेतु भी दिया गया है कि बिना सम्यग्दर्शन के प्राप्त किये ज्ञान और चारित्र दोनों ही मिथ्या हैं । ज्ञान, और चारित्र सम्यक चारित्र तभी होता है जब कि आत्मामें पहले सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है । जिससमय आत्मा मिथ्यादर्शनको छोड़कर सम्यग्दर्शन पर्यायको धारण करता है, उसीसमय अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम अथवा क्षय अथवा क्षयोपशम होनेके साथ ही कुमति और कुत नष्ट होकर सुमति और सुश्रुत ( सम्यग्ज्ञान ) उत्पन्न हो जाते हैं । दर्शनके साथ ज्ञानका अविनाभाव है, जैसा सम्यक अथवा मिथ्यादर्शन होगा, वैसा ही ज्ञान होगा; यद्यपि सम्यग्दर्शनको मिथ्यादर्शन बनानेवाला दर्शनमोहनीयकर्म है, और ज्ञानको ढकनेवाला ज्ञानावरणकर्म है । भिन्नभिन्न प्रतिबंधक कर्मों के होनेसे दोनोंमें भिन्न भिन्न रीति से ही शक्तिकी व्यक्ति होती है । यदि ज्ञानावरणका किसी जीव के तीव्र उदय है तो उसके सम्यग्दर्शनके होनेपर भी ज्ञान बहुत ही मंद रहेगा । ऐसा नहीं है कि सम्यक्त्वके प्रगट होनेपर ज्ञान भी अधिक प्रगट हो जाय । यदि ज्ञान प्रगट होगा तो अपने प्रतिबंधक ज्ञानावरणकर्मके हटनेसे अथवा मंदोदय होनेसे ही प्रगट होगा । इसीप्रकार किसीके अधिक ज्ञान रहनेपर उसके सम्यक्त्व भी प्रगट हो जाय ऐसा नहीं है, कारण ज्ञानकी अधिकता ज्ञाना
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