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________________ प्रस्तावना : ३३ उसे प्रमाण मानते हैं उसी प्रमाणसे वह अर्थव्यवसायात्मक भी सिद्ध हो जाता है, क्योंकि उसे अर्थव्यवसायात्मक न मानने पर उससे परमान्यताकी यथार्थ जानकारी नहीं हो सकती। यदि परमान्यताकी अथार्थजानकारी अन्य परमान्यतासे करें, तो पूर्व प्रश्न ज्यों-का-त्यों खड़ा रहता है और उसके लिए अन्य-अन्य परमान्यताओंको स्वीकार करने पर अनवस्था दोष आये बिना नहीं रहता। यहाँ विज्ञानाहतवादी बौद्ध पुन: कहते हैं कि वास्तवमें बाह्य पदार्थ हैं ही नहीं, क्योंकि बाह्य पदार्थोंको लेकर जो ज्ञान होते हैं वे आलम्बन (विषय) रहित हैं, जैसे स्वप्नज्ञान । सन्ततिरूपसे होनेवाले ज्ञान भी नहीं है। केवल स्वरूपका निश्चय करनेवाला ज्ञान है; यह कथन भी निस्सार है, क्योंकि 'सभी ज्ञान आलम्बन रहित हैं' यह न प्रत्यक्षसे सिद्ध होता है और न अनुमानसे । इसका कारण यह है कि वे समस्त ज्ञान प्रत्यक्षका विषय नहीं हैं। 'विवादापन्न ज्ञान आलम्बन रहित हैं, क्योंकि वे ज्ञान हैं, स्वप्न या इन्द्रजालादि ज्ञानकी तरह' यह अनुमान भी सम्यक् न होनेके कारण उन्हें आलम्बनरहित सिद्ध करनेमें असमर्थ है, कारण कि उक्त हेतु स्वरूपावभासी ज्ञानसन्तानके साथ व्यभिचारी है। स्वरूपावभासी ज्ञानसन्तान प्रत्यय तो है, किन्तु आलम्बनरहित नहीं है-स्वरूप उसका आलम्बन है। यदि उसे भी सन्तानान्तरज्ञानोंकी तरह पक्षान्तर्गत किया जाय तो दो विकल्प उठते हैं। यह अनुमानज्ञान अपने साध्यरूप अर्थको विषय करता है या नहीं? यदि करता है तो अनुमानगत 'प्रत्ययत्व' हेतु उसीके साथ अनैकान्तिक है-साध्य (आलम्बनरहित) के अभावमें वह पाया जाता है। दूसरा पक्ष स्वीकार करने पर अर्थात् उसे निरालम्बन मानने पर उससे निरालम्बनत्वकी सिद्धि नहीं हो सकती । (१४-३१) परमब्रह्म-परीक्षा यहाँ केवल परमब्रह्मको स्वीकार करने वाले वेदान्ती अपने मतकी उपस्थापना करते हैं-'समस्त ज्ञानोंको आलम्बन (बाह्य विषय) रहित प्रतिपादन करना हमें इष्ट है। वह परमब्रह्मके स्वरूपकी ही सिद्धि है। परमब्रह्मको छोड़कर बाह्य कोई पदार्थ नहीं है,' उनका भी यह मत सम्यक् नहीं है, प्रश्न है कि परमब्रह्म स्वतः सिद्ध है या किसी प्रमाणसे सिद्ध है ? स्वतः सिद्ध तो उसे माना नहीं जा सकता, अन्यथा उसमें किसीको कोई विवाद न होता । प्रमाणसे उसे सिद्ध मानने पर दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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