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________________ १२० : प्रमाण-परीक्षा पूर्व रूपको छोड़ता हुआ तथा अपूर्व रूपको न छोड़ता हुआ तीनों कालोंमें भी विद्यमान रहता है उस द्रव्यको उपादान कहा गया है। किन्तु जो सर्वथा अपने रूपको छोड़ देता है अथवा जो बिलकुल नहीं छोड़ता वह किसी भी वस्तुका उपादान नहीं है। जैसे सर्वथा क्षणिक या सर्वथा नित्य ।' विद्यानन्दने उपादानके इसी लक्षणको सामने रखकर सर्वत्र उपादानोपादेयकी व्यवस्था की है। यह तो हुआ उनके उपादानका विचार। इसी प्रकार उन्होंने निमित्त-सहकारि कारणका भी चिन्तन किया है। वे लिखते हैं कि बिना सहकारीसामग्रीके उपादान कार्यजननमें समर्थ नहीं है । जब तक अयोगकेवलिगुणस्थानका उपान्त्य और अन्त्य समय प्राप्त नहीं होता तब तक नामादिक कर्मोके निर्जरणकी शक्ति प्रकट नहीं होती और न मुक्ति ही सम्भव है। अतः अयोगकेवलीका अन्त्य क्षण ही शेष कर्मोके क्षयमें कारण है। इस तरह सहकारी-सापेक्ष उपादान कार्यजनक है, अकेला नहीं। इस प्रकार आचार्य विद्यानन्दका यह उपादान और निमित्त सम्बन्धी चिन्तन जैन दर्शनके अनेकान्तवादी दृष्टिकोणको पुष्ट करता है। इस तरह आचार्य विद्यानन्दने कितना ही नया चिन्तन प्रस्तुत किया है जो उनकी जैन दर्शनको नयी देन है और जो उसे गौरवास्पद एवं सर्वादरणीय बनाता है। १. स्वसामग्र्या विना कार्यं न हि जातुचिदीक्षते । कालादिसामाग्रीको हि मोहक्षयस्तद्रूपाविर्भावहेतुर्न केवलः, तथाप्रतीतेः । क्षीणेऽपि मोहनीयाख्ये कर्मणि प्रथमक्षणे । यथा क्षीणकषायस्य शक्तिरन्त्यक्षणे मता ॥ ज्ञानावृत्यादिकर्माणि हन्तुं तद्वदयोगिनः । पर्यन्तक्षण एव स्याच्छेषकर्मक्षयेऽप्यसो ॥-त० श्लो० १० ७०-७१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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