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प्रस्तावना : ११९
दर्शनका मन्तव्य है कि समवायि, असमवायि और सहकारी इन तीन कारणोंका व्यापार कार्योत्पत्तिमें होता है। बौद्धदर्शनका मत है कि उपादान और सहकारी इन दो ही कारणोंसे कार्य उत्पन्न होता है । सांख्य दर्शन भी कारणोंका विचार करता है, लेकिन उसका दृष्टिकोण कार्यकी उत्पत्तिसे न होकर उसके आविर्भावसे और कारणसे तात्पर्य केवल उपादानसे है। जो भी सरूप अथवा विरूप कार्य उत्पन्न होता है वह एकमात्र प्रकृतिरूप उपादानसे होता है, उसका कोई प्रकृतिसे भिन्न सहकारी कारण नहीं है। जैन दर्शन यद्यपि बौद्ध दर्शनकी तरह प्रत्येक कार्यमें उपादान और निमित्त इन दो ही कारणोंको स्वीकार करता है। परन्तु बौद्ध दर्शनकी मान्यतासे जैन दर्शनकी मान्यतामें बड़ा अन्तर है। बौद्ध दर्शन पूर्व रूपादिक्षणको उत्तर रूपादिक्षणमें उपादान तथा रसादिक्षणको सहकारी मानता है । पर जैनदर्शन अव्यवहित पूर्ण पर्याय विशिष्ट द्रव्यको उपादान और कालादि सामग्रीको निमित्त स्वीकार करता है। यहाँ हम विद्यानन्दके सूक्ष्म चिन्तनके दो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं__ प्रश्न है कि उपादानके नाशसे उपादेयकी उत्पत्ति होती है । सम्यक्दर्शन सम्यकज्ञानका उपादान है। अतः सम्यकज्ञानके उत्पन्न हो जाने पर सम्यक्दर्शनका नाश हो जाना चाहिए? इसके उत्तरमें विद्यानन्द कहते हैं कि उपादेयकी उत्पत्तिमें उपादानका नाश कथंचित् इष्ट है, सर्वथा नहीं, अन्यथा कार्यको उत्पत्ति कभी भी न हो सकेगी। इसका स्पष्टीकरण करते हुए व कहते हैं कि दर्शनपरिणामसे परिणत आत्मा ही वस्तुतः दर्शन है और वह विशिष्ट ज्ञानपरिणामकी उत्पत्तिका उपादान है । अन्वयरहित केवल पर्याय या केवल जीवद्रव्य उसका उपादान नहीं हैं, क्योंकि केवल पर्याय या केवल जीवादि द्रव्य कूर्मरोम आदिकी तरह अवस्तु हैं । इसी तरह दर्शन-ज्ञान परिणत जीव दर्शन-ज्ञान है और दर्शनज्ञान चारित्रका उपादान है, क्योंकि पर्यायविशेष परिणत द्रव्य उपादान है, जिस प्रकार घटपरिणमनमें समर्थ पर्यायरूप मिट्टीद्रव्य घटका उपादान होता है । विद्यानन्द उपादानका स्वरूप बतलाते हुए लिखते हैं-'जो
१. तत्त्वार्थश्लोकवा. पृ० ६८-६९ । २. त्यक्तात्यक्तात्मरूपं यत्पूर्वापूर्वेण वर्तते । कालत्रयेऽपि तद् द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् ॥१॥ यत्स्वरूपं त्यजत्येव यन्न त्यजति सर्वथा । तन्नोपादानमर्थस्य क्षणिकं शाश्वतं यथा ॥२॥-अष्टस० पृ० २१०
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