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प्रस्तावना : १०९
प्रमाण हैं और यह प्रमाणफल है। अभेदमें एकका अनुप्रवेश दूसरेमें हो जानेपर या तो प्रमाण ही रहेगा या प्रमाणफल । फलतः प्रमाण और फलको भेदपक्षको तरह अभेदपक्षमें भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी।
अभेदवादी बौद्धोंका यहाँ कहना है कि 'प्रमाणके फलको प्रमाणसे अभिन्न माननेपर भी संवृति (कल्पना-तदन्यव्यावृत्ति) से अर्थात् अप्रमाणव्यावृतिसे प्रमाण और अफलव्यावृतिसे फल दोनों (प्रमाण-प्रमाणफल) का व्यवहार हो जायेगा-प्रमाण तथा प्रमाणफलकी व्यवस्था बन जायगी।' उनका यह कथन युक्त नहीं है, क्योंकि कल्पनासे उनका व्यवहार माननेपर उनकी काल्पनिक ही सिद्धि होगी, वास्तविक नहीं। इसलिए इष्टसिद्धिसाधनरूप प्रमाण और इष्टसिद्धिरूप फल दोनोंको वास्तविक मानना चाहिए, काल्पनिक नहीं, तभी इष्टसिद्धि सम्भव है और तभी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोंकी भी सिद्धि हो सकेगी।
इसप्रकार संक्षेपमें प्रमाणके स्वरूप, उसकी संख्या, उसके विषय और उसके फलका सयुक्तिक परीक्षण किया।
ग्रन्थके अन्तमें आदि मंगल-पद्यकी तरह एक अन्त्य मंगल-पद्य भी ग्रन्थकारने दिया है, जिसमें उपसंहार पूर्वक उच्च (उत्तम) विद्या-फलकी प्राप्तिकी मंगल-कामना की गयी है__सत्यासत्यके परीक्षक विवेकीजन उक्त प्रकारसे समीक्षित प्रमाणके लक्षण, प्रमाणकी संख्या, प्रमाणके विषय और प्रमाणके फलकी सम्यक् परीक्षा करके तथा वस्तुतत्त्व (यथार्थता) को अवगत कर दृढ़ एवं शुद्ध (निष्पक्ष) दृष्टि बनें अर्थात् यथार्थताको ग्रहण करें, जिससे वे विद्या (ज्ञान) का उच्च फल-पूर्ण आनन्द (मुक्ति) को प्राप्त करें। तात्पर्य यह कि बुद्धिमान लोगोंको उचित है कि वे सत्यकी खोज करें और उसे प्राप्त कर ज्ञानके वास्तविक फल आनन्द (मोक्ष) को उपलब्ध करें। इसके लिए आवश्यक है कि वे प्रमाणके यथार्थ स्वरूप, यथार्थ संख्या, यथार्थ विषय और यथार्थ फलका निर्णय करें तथा अपनी दृष्टिको स्थिर और शुद्ध (निष्पक्ष) बनायें । फलतः वे विद्याफल (विद्यानन्द अर्थात् विद्या और आनन्द) को अवश्य प्राप्त करते हैं। 'विद्याफल' पदसे ग्रन्थ
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