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________________ प्राक्कथन भारतीय धर्मोंमें जैनधर्म भी एक प्रमुख धर्म है । उसके प्रवर्त्तक तीर्थं - कर हैं, जो २४ की संख्या में माने गये हैं । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं, जिनके ज्ञान, तप और महिमाका वर्णन जैनेतर साहित्य में भी बहुलतया उपलब्ध है और जिनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत थे तथा जिनके नामपर हमारे राष्ट्रका नाम भारत पड़ा । ऋषभदेवके द्वितीय पुत्र बाहुबली थे, जिनके बल, पराक्रम, त्याग, तप और साधनाका सविशेष कथन जैन वाङ्मय में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । अन्तिम तीर्थंकर वर्धमानमहावीर हैं, जो २५०० वर्ष पूर्व हुए और जो ऐतिहासिक महापुरुष माने जाते हैं। जैनधर्म के दो पाये हैं, जिनपर वह संस्थापित हुआ है । एक आचार है और दूसरा विचार । आचार अहिंसा प्रधान और विचार स्याद्वाद - प्रधान है । यही कारण है कि जैनधर्म में अहिंसाकी सर्वाधिक प्रतिष्ठा है और स्याद्वाद तो उसके प्रत्येक विचार एवं वचनमें समाहित रहता है । उसके बिना कोई विचार या कोई वचन सत्यको व्यक्त नहीं कर सकते । इस अहिंसा और उसके परिकर (व्रत्तों समितियों, गुप्तियों, चारित्रों, उत्तम क्षमादि धर्माङ्गों और ध्यानों) तथा स्याद्वाद और उसके परिवार ( अनेकान्त, सप्तभङ्गी, प्रमाण, नय निक्षेप आदि) के विवेचनसे समग्र जैन वाङ्मय भरा पड़ा है । 7 जैन धर्मका मुख्य उद्देश्य है आत्म-विकास । सामान्य आत्मा किस प्रकार अपना विकास करके परमात्मा बन सकता है, इसका निरूपण बहुत विस्तार पूर्वक किया गया है । मैं हूँ ? इसे समझने के लिए ही धर्मके साथ दर्शन तथा न्याय शास्त्रकी महती आवश्यकता अनुभव करके जैन चिन्तकोंने उनका भी बड़े विस्तारके साथ प्ररूपण किया है | दर्शनमें स्याद्वाद, सप्तभङ्गी और अनेकान्तका तथा न्यायशास्त्र में प्रमाण और नयका विशेष प्रतिपादन किया है ।" जैन चिन्तकोंने इन विषयोंपर संख्याबद्ध ग्रन्थ लिखे हैं । कुन्दकुन्दका समग्र वाङ्मय जैन दर्शनकी अमूल्य निधि है । गृद्धपिच्छका १. 'प्रमाणनयात्मको न्यायः न्यायदी० मूल व टि० पृ० ५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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