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________________ ८४ : प्रमाण-परीक्षा यदि कहा जाय कि उक्त तीनों रूप अविनाभावरूप नियमका विस्तार होनेसे हेतुके लक्षण हो सकते हैं, तो उसी आधारपर पांचरूप्यको भी हेतुका लक्षण मानना चाहिए। स्पष्ट है कि पक्षव्यापकत्व (पक्षमें हेतुका रहना), अन्वय (सपक्षमें हेतुका होना), व्यतिरेक (विपक्षमें हेतुका न रहना), अबाधितविषयत्व (साध्यका प्रत्यक्षादिसे बाधित न होना) और असत्प्रतिपक्षत्व (विरोधी दूसरे हेतुका न होना) ये पाँचों रूप अविनाभावरूप नियमका विस्तार ही हैं, क्योंकि जो हेतु असिद्ध, विरुद्ध, व्यभिचारी, बाधितविषय और सत्प्रतिपक्ष होगा उसमें अविनाभावरूप नियमका निश्चय नहीं हो सकता। दूसरे, यह आवश्यक नहीं है कि पक्षधर्मताके होने पर ही हेतु सिद्ध हो, जिससे असिद्धकी व्यावृत्ति करनेके कारण उसे (पक्षधर्मताको) हेतका लक्षण कहा जाय, क्योंकि जो (कृत्तिकोदयादि) हेत पक्षमें नहीं रहते वे भी सिद्ध माने जाते हैं। इसी तरह सपक्षसत्त्व भी जरूरी नहीं है, जिससे विरुद्धका निरास करनेके कारण उसे हेतुलक्षण माना जाय, क्योंकि 'सभी वस्तएँ अनेकान्त स्वरूप हैं, क्योंकि वे सत् हैं' इत्यादि अनुमानोंमें सपक्षसत्त्वके अभावमें भी हेत विरुद्ध हेत्वाभास नहीं है। जैसे बौद्ध स्वयं सब पदार्थोंको क्षणिक सिद्ध करनेके लिए दिये गये सत्त्व आदि हेतुओंको सपक्ष सत्त्वके अभावमें भी विरुद्ध नहीं मानते---उन्हें समीचीन हेतु मानते हैं। इसी प्रकार विपक्षव्यावृत्तिसामान्यके होने पर भी अनैकान्तिकका निरास नहीं होता, क्योंकि 'गर्भमें स्थित पुत्र श्याम होगा, क्योंकि उसका पुत्र है' आदि हेतओंमें विपक्षव्यावृत्तिसामान्यके होने पर भी व्यभिचार देखा जाता है। यदि कहा जाय कि विपक्षव्यावृत्तिविशेषका होना जरूरी है, तो वही तो अन्यथानुपपन्नत्व (अविनाभाव) है । अतः उक्त तीन रूप अविनाभावका विस्तार नहीं हैं। यदि कहें कि उन तीन रूपोंके होने पर हेतु में अन्यथानुपपन्नत्व देखा जाता है, अतः वे अविनाभावका विस्तार हैं, तो काल, आकाश आदि पदार्थोंको भी अविनाभावका विस्तार मानिए, क्योंकि उनके होने पर ही हेतुमें अन्यथानुपपन्नत्व देखा जाता है। यहाँ यह कहना भी युक्त नहीं कि काल, आकाश आदि पदार्थ तो सर्व सामान्य हैं, वे अविनाभावका विस्तार नहीं है, क्योंकि यह तर्क तो पक्षधर्मत्त्व आदि रूपोंमें भी समान है, कारण कि वे भी हेतु-अहेतु रूपोंमें पाये जाते हैं। अतः हेतका असाधारण लक्षण बतलाना ही युक्त है और वह अन्यथानुपपन्नत्व ही असाधारण हेतुलक्षण है। उसे ही स्वीकार करना चाहिए। इसी बातको कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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