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को उनके मीठे फल मिलते रहे...
समग्र सृष्टि में मानव को इसलिए बुद्धिजीवी माना जाता है क्योंकि उसके पास सोचने के लिए मस्तक है और उसमें अनेक मनोरथ विचार और वर्तन की भावना उद्भव होती रहती है...मनोरथ बिना का मानव और उसका जीवन दीनों निष्फल है । मनोरथों के संचय द्वारा ही मानव शून्य में से विराट का सर्जन करता है । और उस सर्जन में ही उसके जीवन की सार्थकता है। मानव मनोरथ कभी कभी पत्ते के महल की तरह क्षणजीवी बनते हैं, किन्तु परार्थभावों से लिप्त मनोरथ चिरंजीवी बनते हैं ।
बस, परार्थभावों से भरे वेणीचंदभाई के मनोरथ (कल्पना) ने रंग लाया । उनकी भावनाओं की भव्यता एवं उनके सपनों का सर्जन याने...श्रीमद् यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला - किसे कल्पना भी थी कि बोया हुआ यह बीज वटवृक्ष बनकर अनेकों को "हाश"का अनुभव कराने वाला बनेगा, सारे जैन संघ को ज्ञानजागृति की ओर ले जाएगा ।
बडा वटवृक्ष बडा प्यारा लगता है । दूर से ही उसे देखकर मुसाफिर "हाश" का अनुभव करता है और शीतल छाया को प्राप्त कर अपने श्रम को दूर करता है.... किन्तु ऐसे वटवृक्ष को उत्पन्न करनेवाला बीज छोटा होता है, अदृश्य होता है ठीक वैसे ही वटवृक्ष समी इस पाठशाला को पल्लवित करनेवाले हमारे कार्यवीरों, दानवीरों, धर्मवीरों को हम कैसे भूल सकते
सौ सौ वर्षों से समाज को दिशा निर्देशन देनेवालों गुरुजनों का सर्जन करनेवाली इस संस्थाने समाज को क्या अर्पण नहीं किया ?
आचार्यसंपन्न आचार्यों की भेंट दी, महामना महात्मा शासन को समर्पित किये, विशिष्ट विद्वानों की अपूर्व संपत्ति दी, आचारचुस्त अध्यापक अर्पित किए,
विद्वान वक्ता...प्रभुभक्त आराधक, विधिसंपन्न विधिकारक...शासनरसिक श्रावकों की अपूर्व भेट दी है।
आज हम सब इसकी शीतल छाव में मीठे फल आरोग रहे हैं । इस पाठशाला की बदौलत भारत की पाठशालाएँ फली है...फूली है...और फलती रहेगी ।
शतायु ही नहीं सहस्रायु बने हमारी पाठशाला...
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सौजन्य : प. सौ. सुमतीन adale (Elexanu), भुंगा
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