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हम और हमारी पाठशाला
सुरेन्द्र सी. शाह
म और हमारी पाल्याला
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आज के विज्ञान के युग में एवं यंत्रयुग में भौतिक सुखों की भूख की बोलबाला को ओजित करने के लिए पढाई का प्रचार जोरशोर से हो रहा है... शिक्षित बनो....शिक्षित बनो.. का नारा चारो ओर गाज रहा है, और इन सबके बीच में आध्यात्मिक संस्कृति का बलिदान दिया जा रहा है।
शिक्षण का पवन इतने जोर से फैल रहा है कि शहरों का उल्लंघन कर यह हवा छोटे बेटे गाँवो में भी फैल रही है । जहाँ देखो वहाँ एक ही नाद...एक ही साद...पढो...आगे बढो... प्रगति साधो... शिक्षित बनो...
किन्तु जरा तो रूकिए...अंतरात्मा से पुछिए । आपको पढाई चाहिए या संस्कार । पढाई आप कहाँ से भी, किसी से भी...कैसे भी प्राप्त कर सकते हैं...किन्तु संस्कार...
संस्कार तो संस्कारी से ही प्राप्त होंगे । संस्कार हेतु आपको उपासना करनी पडेगी... संस्कारी को ढूंढना पडेगा ।
ऐसे संस्कारधामों की तो जगह जगह आवश्यकता पडेगी । धार्मिक संस्कारों ने ही तो...
मयणा का सर्जन किया । मयणा ने डंबर को श्रीपाल बनाया । अनुपमा का सर्जन किया । अनुपमा ने वस्तुपाल तेजपाल को दीक्षादर्शन दिया ।
संस्कारों के झरने का दिव्य स्रोत है पाठशाला..
इस आवश्यकता को महसूस करते हुए आज से सौ वर्ष पूर्व वेणीचंदभाई के मन में विचार स्फुरित हुआ कि यदि जगह जगह संस्कार धाम पाठशाला खडी करनी है तो पाठशाला में शिक्षा प्रदाता संस्कारी गुरुजनों का सर्जन करना होगा । उनको लगा जिस समाज में ज्ञान की उत्कंठा जीवित नहीं है वह समाज मुर्दा माना जाता है । क्यों न ऐसी एक ज्ञानगंगा बहाये जहाँ से संस्कार की फुलवल्लियाँ(संस्कार दाता)पनपती रहें... ऐसा कार्य करें... चिरयुग तक समाज
સૌજન્ય : શ્રી કીર્તિકુમાર માણેકલાલ શાહ (ધીણોજવાળા), મુંબઈ
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