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धर्म और समाज
जैन समाजमें तीन वर्ग हैं। एक सबसे संकुचित है । उसका मानस ऐसा है कि यदि किसी वस्तु, कर्त्तव्य और प्रवृत्तिके साथ अपना और अपने जैन धर्मका नाम न हो तो उस वस्तु, उस कर्तव्य और उस प्रवृत्तिकी, चाहे वह कितनी भी योग्य क्यों न हो, तिरस्कार नहीं, तो कमसे कम उपेक्षा तो जरूर करेगा। इसके मुखिया साधु और गृहस्थ दोनों हैं । इनमें पाये जानेवाले कट्टर क्रोधी और जिद्दी लोगोंके विषयमें कुछ कहनेकी अपेक्षा मौन रहना ज्यादा अच्छा है । दूसरा वर्ग उदार नामसे प्रसिद्ध है । इस वर्गके लोग प्रकट रूपसे अपने नामका या जैनधर्मका बहुत आग्रह या दिखावा नहीं करते। बल्कि शिक्षाके क्षेत्रमें भी गृहस्थोंके लिए कुछ करते हैं। देश परदेशमें, सार्वजनिक धर्म-चर्चा या धर्म-विनिमयकी बातमें दिलचस्पी रखकर जैन धर्मका महत्त्व बढ़ानेकी चेष्टा करते हैं । यह वर्ग कट्टर वर्गकी अपेक्षा अधिक विचारवान् होता हैं । किन्तु हमें यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इस वर्गकी पहले वर्गकी अपेक्षा कुछ सुधरी हुई मनोदशा है । पहला वर्ग तो क्रोधी और निडर होकर जैसा मानता है, कह देता है, परन्तु यह दूसरा वर्ग भीरुताके कारण बोलता तो नहीं है, फिर भी दोनोंकी मनोदशाओंमें बहुत फर्क नहीं है । यदि पहले वर्गमें रोष और अहंकार है, तो दूसरे वर्गमें भीरुता और कृत्रिमता है । वास्तविक धर्मकी प्रतिष्ठा और जैन धर्मको सजीव बनानेकी प्रवृत्तिसे दोनों ही समान रूपसे दूर हैं । उदाहरण स्वरूप, राष्ट्रीय जीवनकी प्रवृत्तिको ही ले लीजिए। पहला वर्ग खुल्लमखुल्ला कहेगा कि राष्ट्रीय प्रवृत्तिमें जैन धर्मको स्थान कहाँ है ? ऐसा कहकर वह अपने भक्तोंको उस तरफ जानेसे रोकेगा। दूसरा वर्ग खुल्लमखुल्ला ऐसा नहीं कहेगा किन्तु साथ ही अपने किसी भक्तको राष्ट्रीय जीवनकी तरफ जाता देखकर प्रसन्न नहीं होगा। खुदके भाग लेनेकी तो बात दूरकी है, यदि कोई उनका भक्त राष्ट्रीय प्रवृत्तिकी तरफ झुका होगा या झुकता होगा, तो उसके उत्साहको वे " जो गुड़से मरे उसे विषसे न मारिए " की नीतिसे ठण्डा अवश्य कर देंगे। उदाहरण लीजिए । यूरोप अमेरिकामें विश्वबंधुत्वकी परिषदें होती हैं, तो वहाँ जैनधर्म जबर्दस्ती अपना स्थान बनाने पहुँच जाता है, परन्तु बिना परिश्रमके ही विश्वबंधुत्वकी प्रत्यक्ष प्रवृत्तिमें भाग लेनेके देशमें ही प्राप्त सुलभ अवसरका वह उपयोग नहीं करता । राष्ट्रीय महासभाके समान विश्व-बंधुत्वका सुलभ और
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