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________________ शस्त्र और शास्त्र ६७ उदारता दो तरह की है— एक तो विरोधी या भिन्न ध्येयवाले के प्रति तटस्थवृत्तिके अभ्यासकी और दूसरी आदर्शको महान् बनानेकी | जब आदर्श बिलकुल संकुचित होता है, व्यक्तिमें या पंथमें मर्यादित होता है, तब मनुष्यका मन, जो स्वभावतः विशाल तत्त्वोंका ही बना हुआ है उस संकुचित आदर्श में घबड़ाहटका अनुभव करता है और विषचक्रसे बाहर निकलनेके लिए लालायित हो जाता है । उस मनके समक्ष यदि विशाल आदर्श रखा जाय तो उसे अभीष्ट क्षेत्र मिल जाता है और इस प्रकार क्लेश और कलहके लिए उसकी शक्ति शेष नहीं रह जाती । अतएव धर्मप्रेमी होनेकी इच्छा रखनेवाले प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य है कि वह अपने आदर्शको विशाल बनावे और उसके लिए मनको तैयार करे । और ज्ञानवृद्धिका मतलब भी समझ लेना चाहिए । मनुष्यजातिमें ज्ञानकी भूख स्वभावतः होती है । उस भूखको भिन्न भिन्न पंथोंके, धर्मोके और दूसरी अनेक ज्ञानविज्ञानकी शाखाओंके शास्त्रोंके सहानूभूतिपूर्वक अभ्यासके द्वारा ही शान्त करनी चाहिए। सहानुभूति होती है तभी दूसरी बाजूको ठीक तौरसे समझा जा सकता है । [ पर्युषण - व्याख्यानमाला, बम्बई १९३२ । अनुवादक, प्रो० दलसुख मालवणिया ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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