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________________ धर्म और समाज कलुषित हुआ और अपनी पवित्रता अखंडित न रख सका । यही कारण है कि इस देशमें लाखों नहीं करोड़ों शास्त्रजीवियों के होते हुए भी अज्ञान और विवादका अन्त नहीं है। इतना ही नहीं; इस वर्गने अज्ञान और विवादकी वृद्धि और पुष्टि करने में भी कुछ कम हिस्सा नहीं लिया है । शूद्रों और स्त्रियोंको तो ज्ञानका अनधिकारी घोषित कर उनसे सिर्फ सेवा ही ली गई। क्षत्रियों और वैश्योंको ज्ञानका अधिकारी मानकर भी उनका अज्ञान दूर करनेका कोई व्यवस्थित प्रयत्न व्यापकरूपसे नहीं किया गया। शस्त्रजीवी वर्ग भी आपसी ईर्षा-द्वेष भोग-विलास और कलहके फलस्वरूप परराष्ट्रके आक्रमणसे अपने देशको न बचा सका और अन्तमें स्वयं भी गुलाम बन गया। पूर्वजोंने अपने हाथमें शास्त्र या शस्त्र लेते समय जो ध्येय रखा था उससे च्युत होते ही उसका अनिष्ट परिणाम उनकी संतति और समाजमें प्रकट हुआ। शास्त्रजीवी वर्ग इतना अधिक निर्बल और पेटू हो गया कि वह धन और सत्ताके लोभसे सत्य बेचनेको तैयार हो गया और शस्त्रजीवी राजा महाराजाओंकी खुशामद करने में बड़पन समझने लगा। शस्त्रजीवी वर्ग भी कर्तव्य-पालनके स्थानमें दान-दक्षिणा देकर ही उस खुशामदी वर्गद्वारा अपनी ख्यातिकी रक्षाके लिए प्रयत्नशील रहने लगा। इस तरह इन दोनोंकी बुद्धि और सत्ताकी चक्कीमें आश्रित जन पीसे जाने लगे और अंतमें समस्त समाज निर्बल हो गया। हम आज भी प्रायः देखते हैं कि उपनिषदों और गीताका पाठ करनेवाले भी अन्तमें हिसाब लगाते हैं कि दक्षिणामें क्या मिला? भागवतका साप्ताहिक परायण करनेवाले ब्राह्मणकी दृष्टि सिर्फ दक्षिणाकी ओर रहती है। अभ्यासके बलसे श्लोकोंका उच्चारण होता रहता है, किन्तु आँख किसने दक्षिणा रखी और किसने नहीं, यही देखनेके लिए तत्पर रहती है। दुर्गासप्तशतीका पाठ प्रायः दक्षिणा देनेवालेके लिए किया जाता है। गायत्रीके जाप भी दक्षिणा देनेवालेके लिए होते हैं। एक यजमानसे दक्षिणा और 'सीधा' लेनेके लिए शास्त्र-जीवियोंमें जो मारामारी होती है उसकी तुलना एक रोटीके टुकड़े के लिए लड़नेवाले दो कुत्तोंसे दी जा सकती है। जमीनके एक छोटेसे टुकड़े के लिए भी अब दो शस्त्रजीवी हाईकोर्टमें जाकर लड़ते देखे जाते हैं । और तो और इन शास्त्रजीवियोंमें जो स्वार्थ और संकुचितताका दोष प्रविष्ट हुआ उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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