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________________ शास्त्र और शास्त्र किन्तु ज्यों ज्यों समय बीतता गया शास्त्रद्वारा प्राप्त प्रतिष्ठाके फल चखनेकी वृत्ति और उपभोगकी लालसा शास्त्रमूर्ति वर्गमें बलवती होती गई । इसी तरह शस्त्रमूर्ति वर्गमें भी शस्त्रसेवासे लब्ध प्रतिष्ठाके फलों का आस्वादन करनेकी क्षुद्र वृत्ति उदित हो गई । फलस्वरूप धीरे धीरे सात्त्विक और राजसिक प्रकृतिका स्थान तामस प्रकृतिने ले लिया और ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई कि शस्त्रमूर्ति वर्ग शस्त्रजीवी और शास्त्रमूर्ति वर्ग शास्त्रजीवी बन गया। अर्थात् दोनोंका ध्येय रक्षा तो रहा नहीं, आजीविका हो गया। जब शास्त्र और शस्त्रके द्वारा आजीविका करने और अपनी भोगवासना तृप्त करनेकी वृत्ति उदित हुई, तब शास्त्रजीवी ब्राह्मगोंमें परस्पर फूट और ईर्षा बढ़ने लगी। उनका काम भक्त अनुयायी और शिष्योंको अज्ञान और कुसंस्कारोंसे बचा लेनेका था, सो न करके वे अपने हाथमें फँसी निरक्षर और भोली जनताकी सेवाशक्तिका अधिकसे अधिक उपयोग किस प्रकार हो, इसी प्रतिस्पर्धामें लग गये । अतएव शिकारीकी तरह ये शास्त्रजीवी अपने शास्त्रजालमें अधिकसे अधिक अनुयायियोंको बद्ध कानेके लिए दूसरे शास्त्रजीवियों के साथ कुश्तीमें उतरने लगे और जैसा कि आचार्य सिद्धसेनने कहा है कि एक मांसके टुकड़े के लिए लड़नेवाले दो कुत्तोंमें तो मैत्रीकी संभावना है, किन्तु दो सगे भाई यदि शास्त्रजीवी या वादी हों तो उनमें मैत्रीकी संभावना नहीं, यह स्थिति उपस्थित हो गई। __दूसरी ओर शस्त्रमूर्तिवर्ग भी शस्त्रजीवी बन गया। अतएव उसमें भी भोग वैभवकी प्रतिस्पर्धा और कर्तव्यच्युति प्रविष्ट हो गई। इससे अनाथ या आश्रित प्रजावर्गका पालन करनेमें अपनी शक्तिका व्यय करनेकी अपेक्षा यह वर्ग भी सत्ता और महत्ताकी वृद्धिके पीछे पागल हो गया । परिणाम यह हुआ कि इन शस्त्रजीवियों के बीच, किसी अनाथ या निर्बलकी रक्षाके निमित्त नहीं, किन्तु व्यक्तिगत द्वेष और वैरके कारण युद्ध होने लगे और युद्धाग्निमें, जिनकी रक्षाके वास्ते इस वर्गकी सृष्टि हुई थी और इतना गौरव प्राप्त हुआ था, उन्हीं करोड़ों लोगोंको बलिदान किया जाने लगा। इस तरह आर्यावर्तका इतिहास शास्त्र और शस्त्र दोनों के द्वारा विशेष - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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