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________________ आस्तिक और नास्तिक हिसाबसे सांख्य लोगोंको जो निरीश्वरवादी होने के कारण एक बार नास्तिक गिने जाते थे, वेदोंका कुछ अंशोंमें प्रामाण्य स्वीकार करनेके कारण धीरे धीरे नास्तिक कहा जाना बन्द हो गया और वे आस्तिक गिने जाने लगे और जैन तथा बौद्ध जो वेदका प्रामाण्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते थे, नास्तिक । यहाँ तक तो आस्तिक नास्तिक शब्दोंके प्रयोगके बारेमें चर्चा हुई। __ अब दूसरी तरफ देखिए। जिस प्रकार पुनर्जन्मवादी, ईश्वरवादी और वेदवादी लोग अपनेसे जुदा पक्षको बतलानेके लिए नास्तिक शब्दका व्यवहार करते थेऔर व्यवहार में कुछ शब्दों का प्रयोग तो करना ही पड़ता है-उसी तरह भिन्न पक्षवाले भी अपने और अपने प्रतिपक्षीको सूचित करनेके लिए अमुक शब्दोका व्यवहार करते थे। वे शब्द थे सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि । पुनर्जन्मको मानते हुए भी कुछ विचारक अपने गहरे चिन्तन और तपके परिणामसे यह पता लगा सके थे कि ईश्वर जैसी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है। इसलिए उन्होंने अधिकसे अधिक विरोध और जोखिम सहन करके भी अपने विचार लोगोंके सामने रखे। इन विचारों को प्रकट करते समय अन्तमें उन्हें वेदोंके प्रामाण्य के स्वीकारसे भी इन्कार करना पड़ा । ये लोग समझते थे और सच्ची प्रामाणिक बुद्धिसे समझते थे कि उनकी दृष्टि अर्थात् मान्यता सम्यक् अर्थात् सच्ची है और दूसरे वेदवादी पक्षकी मान्यता मिथ्या अर्थात् भ्रान्त है। सिर्फ इसीलिए समभावपूर्वक उन्होंने अपने पक्षको सम्यग्दृष्टि और सामनेवालेको मिथ्यादृष्टि बतलाया । इसी भाँति जैसे संस्कृतजीवी विद्वानोंने अपने पक्षके लिए आस्तिक और अपनेसे भिन्न पक्षके लिए नास्तिक शब्द योजित किये थे उसी तरह प्राकृतजीवी जैन और बौद्ध तपस्वियोंने भी अपने पक्षके लिए सम्यग्दृष्टि ( सम्मादिट्ठी) और अपनेसे भिन्न पक्षके लिए मिथ्यादृष्टि (मिच्छादिट्ठी) शब्द प्रयुक्त किये। पर इतनेसे ही अन्त आनेवाला थोड़े ही था। मतों और मतभेदोंका वटवृक्ष तो समय के साथ ही फैलता जाता है । जैन और बौद्ध दोनों वेदविरोधी होते हुए भी उनमें आपसमें भी बड़ा मतभेद था। इसलिए जैन लोग भी अपने ही पक्षको सम्यग्दृष्टि कहकर वेदका प्रामाण्य नहीं स्वीकार करनेमें सगे भाई जैसे अपने बौद्ध मित्रको भी मिथ्यादृष्टि कहने लगे। इसी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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