SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म और समाज दो पक्ष और उनकी अनेक शाखाएँ जब अस्तित्वमें आई तो पहले जो आस्तिक और नास्तिक शब्द सिर्फ पुनर्जन्मवादी और पुनर्जन्मविरोधी पक्षों के लिए ही प्रयुक्त होते थे, वे ही ईश्वरवादी और ईश्वर-विरोधी पक्षोंके लिए भी व्यवहार में आने लगे। इस प्रकार आस्तिक और नास्तिक शब्दोंके अर्थका क्षेत्र पुनर्जन्म के अस्तित्व और नास्तित्वकी अपेक्षा अधिक विस्तृत यानी ईश्वरके अस्तित्व और नास्तित्व पर्यन्त हो गया। फिर पुनर्जन्म माननेवाले वर्गमें भी ईश्वरको मानने और न माननेवालोंके दो पक्ष हो गये, अर्थात अपने आपको आस्तिक समझनेवाले आचार्य के सामने ही उनकी परंपरामें दो भिन्न पार्टियाँ हो गई। उस समय पुनर्जन्मवादी होने के कारण आस्तिक गिने जानेवाले वर्गके लिए भी ईश्वर न माननेवाले लोगोंको नास्तिक कहना आवश्यक हो गया। परन्तु तब इन शब्दोंमें अमुक बात माननी या अमुक न माननी, इसके सिवाय कोई दूसरा खास भाव नहीं था । इसलिए पनर्जन्मवादी आर्य पुरुषोंने अपने ही पक्षके किन्तु ईश्वरको नहीं माननेवाले अपने बन्धुओंको, वे कुछ मान्यता भेद रखते हैं इस बातकी सूचनाके लिए ही, नास्तिक कहा । इसी तरह सांख्य, मीमांसक, जैन और बौद्ध ये सब पुनर्जन्मवादीके नाते समानरूपसे आस्तिक होते हुए भी दूसरी तरहसे नास्तिक • कहलाये। अब एक दूसरा प्रश्न खड़ा हुआ और वह था शास्त्रके प्रमाणका । वेदशास्त्रकी प्रतिष्ठा रूढ हो चुकी थी। पुनर्जन्मको माननेवाला और ईश्वर तत्त्वको भी माननेवाला एक ऐसा बड़ा पक्ष हो गया था जो वेदका प्रामाण्य पूरा पूरा मंजर करता था। उसके साथ ही एक ऐसा भी बड़ा और प्राचीन पक्ष था जो पुनर्जन्ममें विश्वास रखते हुए भी और वेदका पूरा पूरा प्रामाण्य स्वीकार करते हए भी ईश्वर तत्व नहीं मानता था । यहाँसे आस्तिक नास्तिक शब्दों में बड़ा भारी गोटाला शुरू हो गया । अगर ईश्वरको माननेसे किसीको नास्तिक कहा जाय, तो पुनर्जन्म और वेदका प्रामाण्य माननेवाले अपने सगे भाई मीमांसकको भी नास्तिक कहना पड़े। इसलिए मनु महाराजने इस जटिल समस्याको सुलझानेके लिए नास्तिक शब्दकी एक संक्षिप्त व्याख्या कर दी और वह यह कि जो वेद-निंदक हो वह नास्तिक कहा जाय । इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy