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संपादकीय
श्रद्धेय पं० सुखलालजी संघवी स्वतंत्र विचारकके रूपमें प्रसिद्ध हैं । विगत बीस वर्षोंमें उन्होंने जो कुछ लिखा है और व्याख्यानोंमें जो कुछ कहा है, उसमेंसे धर्म और समाजविषयक लेखोंको चुनकर इस पुस्तकमें संग्रह किया गया है। पंडितजीके लेखनका प्रारंभ 'कर्मग्रन्थ' जैसे जैन ग्रन्थोंसे हुआ है । किन्तु उनके सम्पादनमें उन्होंने जो कुछ लिखा था, आज तीस वर्षके बाद भी कोई लेखक उससे आगे नहीं बढ़ा है। इससे हम समझ सकते हैं कि कितना गंभीर अध्ययन और मनन करनेके बाद वे लिखते और बोलते हैं ।
वास्तवमें उन्होंने धर्म और समाजके विषयमें सन् १९३० से लिखना और बोलना शुरू किया है। किन्तु उस समय उनके जो विचार बनें, लगभग वे ही विचार आज भी हैं। उनमें स्पष्टता और गंभीरता तो आती गई, पर विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। उनके लेखोंके पढ़नेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे प्रगतिशील नहीं हैं। उनको जिस वस्तुका दर्शन आजसे बीस वर्ष पहले हुआ और वह भी अंग्रेजी पुस्तकें पढ़े विना, उसका दर्शन आजके कालेजोंमें पढ़नेवालोंके लिए भी सुलभ नहीं। धर्म तो ऐसा विषय है कि पढ़े लिखे युवक उसपर सोचना जरूरी ही नहीं समझते । इसका भार तो वे पंडों और पुरोहितोंपर ही डालकर निश्चिन्त हैं।
पंडितजी जब अहमदाबादके 'गुजरात विद्यापीठ के अध्यापक होकर पहुंचे तब गुजरातमें गाँधी-युग शुरू हो चुका था और गाँधीजीने धर्मकी रूढ मान्यताओंपर प्रहार करना शुरू कर दिया था। उस परिस्थितिमें पंडितजीको भी जैन धर्मके और धर्मके तात्त्विक रूपके विषयमें गहराईसे सोचना विचारना पड़ा और धर्मके बाह्य रूपसे तात्त्विक धर्मको अलग करके दिखानेकी
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