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धर्म और समाज
कुछ त्रुटियाँ भी मालूम पड़ें तो उन्हें भी विना संकोच स्वीकार करते जाना चाहिए।
(३) जिस प्रकार अपनी दृष्टि समझानेका धैर्य चाहिए उसी प्रकार दूसरेकी दृष्टि समझनेके लिए भी पूरी उदारता तथा तत्परता होनी चाहिए । एक वस्तुके विषयमें जितने पक्ष तथा जितने दृष्टिकोण हो सके सभीकी समानता करके बलाबल जाननेकी वृत्ति होनी चाहिए । इतना ही नहीं यदि अपना पक्ष निर्बल और भ्रान्त मालूम पड़े, तो उसका त्याग करनेमें इतनी प्रसन्नता होनी चाहिए जितनी स्वीकार करते समय भी न हुई थी।
( ४ ) सम्पूर्ण सत्य देश, काल अथवा संस्कारोंसे सीमित नहीं होता। इसलिए सारे पहलुओंमें जो खंडसत्य हैं, उन सबका समन्वय करनेकी वृत्ति होनी चाहिए।
पंथमें धर्म नहीं है, इसीलिए पन्थ समाज और राष्ट्रके लिए घातक बने हुए हैं । जहाँ समाज और राष्ट्रकी एकताका प्रश्न आता है वहींपर निष्प्राण पंथ आड़े आ जाते हैं। धर्मजनित पंथोंकी सृष्टि तो मानव-समाज तथा विश्वमात्रको एक करनेके लिए हुई थी। इस कार्यको करनेका पंथ दावा भी करते हैं। किन्तु हम देख रहे हैं कि पन्थ ही हमारे एक होने और मिलने में रोड़ा अटका रहे हैं । पंथका अर्थ और कुछ नहीं उसका अर्थ है, धर्मके नामपर उत्पन्न तथा पुष्ट हुआ हमारे मानसिक संकुचितपनका मिथ्याभिमान । जब लोक-कल्याण या राष्ट्र-कल्याणके लिए एक सामान्य-सी बातको प्रचलित करना होता है तो पंथके जहरीले और संकुचित संस्कार आकर कहते हैं--सावधान ! तुम ऐसा नहीं कर सकते । ऐसा करोगे तो धर्म रसातलमें चला जाएगा । लोग क्या समझेंगे और क्या कहेंगे ! कोई दिगम्बर या श्वेताम्बर या अन्य कोई अपने पक्षकी तरफसे चलनेवाले झगड़ेमें भाग न ले अथवा पैसा होनेपर भी उस झगड़ेके फंडमें दान देनेसे इन्कार करे, न्यायालय में प्रभाव होनेपर भी साक्षी न बने, तो उसका पंथ उसके लिए क्या करेगा ? मुसलमानोंका सारा जत्था हिन्दू मंदिरके पाससे ताजिया ले जा रहा हो और कोई सच्चा मुसलमान हिन्दुओंकी भावना न दुखाने के उद्देश्यसे दूसरे रास्ते ले जानेको कहे या गोहत्या करने की मनाही करे, तो उस मुसलमानके साथ उसके पंथवाले कैसा
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