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धर्म और समाज
साधुगण समझ नहीं पाते? अगर वे समझ सकते हैं तो क्या उस गल्तीको वे चौगुने बलसे दलीलोंके साथ दर्शाने में असमर्थ हैं ? अगर वे समर्थ हैं तो उचित उत्तर देकर उस विचारका प्रभाव लोगोंमेंसे नष्ट करनेका न्याय्य मार्ग क्यों नहीं लेते ? धर्मकी रक्षाके बहाने वे अज्ञान और अधर्मके संस्कार अपनेमें और समाजमें क्यों पुष्ट करते हैं ? मुझे तो सच बात यही जान पड़ती है कि चिरकालसे शारीरिक और दूसरा जवाबदेही पूर्ण परिश्रम किये बिना ही मखमली और रेशमी गद्दियोंपर बैठकर दूसरोंके पसीनेपूर्ण परिश्रमका पूरा फल बड़ी भक्तिके साथ चखने की जो आदत पड़ गई है,वही इन धर्मधुरंधरोंसे ऐसी उपहासास्पद प्रवृत्ति कराती है । ऐसा न होता तो प्रमोद-भावना और ज्ञान-पूजाकी हिमायत करनेवाले ये धर्मधुरंधर विद्या, विज्ञान और विचार-स्वातन्त्र्यका आदर करते और विचारक युवकोंसे बड़ी उदारतासे मिलकर उनके विचारगत दोषों को दिखाने और और उनकी योग्यताकी कद्र करके ऐसे युवकोंको उत्पन्न करनेवाले अपने जैनसमाजका गौरव करते । खैर, जो कुछ हो पर अब दोनों पक्षोंमें प्रतिक्रिया शुरू हो गई है । जहाँ एक पक्ष ज्ञात या अज्ञात रूपसे यह स्थापित करता है कि धर्म और विचारमें विरोध है, तो दूसरे पक्षको भी यह अवसर मिल रहा है कि वह प्रमाणित करे कि विचार-स्वातन्त्र्य आवश्यक है। यह पूर्ण रूपसे समझ रखना चाहिए कि विचार-स्वातन्त्र्यके बिना मनुष्य का अस्तित्व ही अर्थशून्य है। वास्तवमें विचार तथा धर्मका विरोध नहीं, पर उनका पारस्परिक अनिवार्य सम्बन्ध है ।
[ओसवाल नवयुवक, अगस्त १९६६] .
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