________________
'धर्म और बुद्धि
__ हम उन धर्मधुरंधरों से पूछना चाहते हैं कि क्या वे लोग तात्विक और ज्यावहारिक धर्म के स्वरूपको अभिन्न या एक ही समझते हैं ? और क्या व्यावहारिक स्वरूप या बंधारणको वे अपरिवर्तनीय साबित कर सकते हैं ? व्यावहारिक धर्मका बंधारण और स्वरूप अगर बदलता रहता है और बदलना चाहिए तो इस परिवर्तनके विषयमें विशेष यदि कोई अभ्यासी और चिन्तनशील विचारक केबल अपना विचार प्रदर्शित करे, ता इसमें उनका क्या बिगड़ता है ? ___ सत्य, अहिंसा, संतोष आदि तात्त्विक धर्मका तो कोई विचारक अनादर करता ही नहीं बल्कि वह तो उस तात्त्विक धर्मकी पुष्टि, विकास एवं उपयोगिताका स्वयं कायल होता है । वे जो कुछ आलोचना करते हैं, जो कुछ हेर-फेर या तोड़-फोड़की आवश्यकता बताते हैं वह तो धर्मके ज्यावहारिक स्वरूपके सम्बन्धमें है और उसका उद्देश्य धर्मकी विशेष उपयोगिता एवं प्रतिष्ठा बढ़ाना है। ऐसी स्थिति में उनपर धर्म-विनाशका आरोप लगाना या उनका विरोध करना केवल यही साबित करता है कि या तो धर्मधुरन्धर धर्मके वास्तविक स्वरूप और इतिहासको नहीं समझते या समझते हुए भी ऐसा पामर प्रयत्न करनेमें उनकी कोई परिस्थिति कारणभूत है।
आम तौरसे अनुयायी गृहस्थ वर्ग ही नहीं बल्कि साधु वर्गका बहुत बड़ा भाग भी किसी वस्तुका समुचित विश्लेषण करने और उसपर समतौल पन रखने में नितान्त असमर्थ है। इस स्थितिका फायदा उठा कर संकुचितमना साधु और उनके अनुयायी गृहस्थ भी, एक स्वरसे कहने लगते हैं कि ऐसा कहकर अमुकने धर्मनाश कर दिया। बेचारे भोलेभाले लोग इस बातसे अज्ञानके और भी गहरे गढ़े में जा गिरते हैं । वास्तवमें चाहिए तो यह कि कोई विचारक नये दृष्टिबिन्दसे किसी विषयपर विचार प्रगट करें तो उनका सच्चे दिलसे आदर करके विचार-स्वातन्यको प्रोत्साहन दिया जाय। इसके बदले में उनका गला घोंटनेका जो प्रयत्न चारों ओर देखा जाता है उसके मूल में मुझे दो तत्व मालूम होते हैं। एक तो उग्र विचारोंको समझ कर उनकी गलती दिखानेका असामर्थ्य
और दूसरा अकर्मण्यताकी भित्तिके ऊपर अनायास मिलनेवाली आरामतलबीके विनाशका भय ।
यदि किसी विचारकके विचारोंमें आंशिक या सर्वथा गल्ती हो तो क्या उसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org