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________________ धर्म और समाज शुद्ध और व्यापक ज्ञान देनेवाली शिक्षासंस्थाएँ हैं । वर्तमान युगमें प्रत्येक विषय में सार्वजनिक शिक्षाकी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । इस युगमें धर्मकी भी सर्वग्राह्य सार्वजनिक शिक्षा कितनी आवश्यक है और इस विषय में जनताकी कितनी रुचि है, यह हमें दिन प्रतिदिन बढ़ती हुई धर्मविषयक ऐतिहासिक और तुलनात्मक शिक्षासे मालूम हो जाता है । यद्यपि ऐसी शिक्षाका प्रारम्भ यूरोपियनोंद्वारा और यूरोपकी भूमिपर हुआ था, फिर भी यह प्रसन्नताकी बात है कि भारत के एक सच्चे ब्राह्मणने उसी यूरोपकी भूमिमें इस विषयका गुरु पद प्राप्त किया है । मनुके इस कथनका कि ' किसी भी देश के निवासी भारत में आकर विद्या ग्रहण करें' गहरा आशय यह भी हो सकता है कि भारत के युगानुरूप ब्राह्मण भारत के बाहर जाकर भी युगानुरूप शिक्षा देंगे । जहाँ सनातन संस्कारके द्विज आज भी मनुके इन शब्दोंसे चिपके हुए हैं वहाँ मनुके ज्ञानके उत्तराधिकारी श्रीराधाकृष्णन शब्दोंसे न चिपककर उसके गर्भित अर्थको अमल में ला रहे हैं । १८४ बुद्धि, स्मृति, विशाल अध्ययन, संकलनशक्ति और भाषापर असाधारण प्रभुत्व आदि सर्वगुणसंपन्न होते हुए भी अगर श्रीराधाकृष्णनको आर्य धर्म और उसके तत्वोंका विशद सूक्ष्म और समभावी ज्ञान न होता, तो उनके द्वारा इतनी सफलता से विश्वके सभी धर्मोकी तात्विक और व्यावहारिक मीमांसा होना असंभव था । यद्यपि इस पुस्तक पदपदसे विशदता टपकती है तो भी पाठकों को उसका कुछ नमूना पृष्ठ १७५ में ' निवृत्ति बनाम प्रवृत्ति' के अन्तर्गत चित्रित किये गये चित्रपरसे उपस्थित किया जा सकता है । पाठक देख सकते हैं कि इस अध्यायमें पूर्व और पश्चिमके धर्मों का स्वरूप भेद, मानस-भेद और उद्देश्य भेद कितनी खूबी से चित्रित किया गया है। उनकी विचार - सूक्ष्मताको प्रदर्शित करनेके लिए दो तीन उदाहरण यथेट होंगे । लेखक मोक्षके स्वरूपकी चर्चा करते हुए धर्मोके एक गूढ रहस्यका उद्घाटन करते हैं। कुछ लोग मोक्षको ईश्वरकी कृपाका फल मानकर बाहर से आनेवाली भेंट समझ लेते हैं, तो कुछ उसे आत्म-पुरुषार्थका फल मानते हैं । इसके सूक्ष्म विवेचनमें श्रीराधाकृष्णन वास्तवमें योगशास्त्रकी 'चित्तभूमिका' जैनशास्त्र के 'गुणस्थानोंका' और बौद्ध-पिटकोंके मार्गका ही अत्यन्त सरल भाषा में विवेचन करते हैं। उनका कथन है कि अपने हृदय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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