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धर्मोंका मिलन
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दृष्टिसे धर्मका ज्ञान कराया जाय जिससे धर्मकी शिक्षा सिर्फ एक पंथमै सीमित न रहकर सर्वपथगामी बने और अपने पराये सभी पंथोंके स्थूल और सूक्ष्म जीवनके इतिहासका भान हो । इस प्रकारकी शिक्षासे अपने पंथकी तरह दूसरे पंथोंके भी सुतत्त्वोंका सरलतासे ज्ञान हो जाता है और परपंथोंकी तरह सुपंथकी भी त्रुटियोंका पता लग जाता है। साथ ही प्राचीनतामें ही महत्ता
और शुद्धिकी भ्रान्त मान्यता भी सरलतासे लुप्त हो जाती है। इस दृष्टिसे धर्मके ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययनको बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त होता है।
धर्मके व्यापक और तटस्थ दृष्टिसे ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक अध्ययनके लिए योग्य स्थान सार्वजनिक कालेज और यूनिवर्सिटियाँ ही हैं। यों तो प्रत्येक देशमें अनेक धर्मधाम हैं और उन धर्मधामोंसे संबंधित विद्याधाम भी हैं । परन्तु विशेष विशेष सम्प्रदायोंके होनेके कारण उनमें सिर्फ उन्हीं सम्प्रदायोंका अध्ययन कराया जाता है और उन्हीं संप्रदायोंके विद्यार्थी और अध्यापक रहते हैं। ऐसे विद्याधामोंमें चाहे कितना ही उदार वातावरण क्यों न हो अन्यधर्मी विद्यार्थी और अध्यापक मुश्किलसे ही जाते हैं और यदि जाते हैं तो उनमें सम्पूर्ण रीतिसे घुल-मिल नहीं सकते । परिणामस्वरूप ऐसे विद्याधामोंका धर्म-शिक्षण एकदेशीय रह जाता है। इससे भिन्न भिन्न सम्प्रदायोंके बीचका अंतर और भ्रान्तियाँ दूर होनेकी अपेक्षा अगर बढ़ती नहीं है तो कम भी नहीं होती। यातायातके सुलभ साधनोंने इस युगमें सभी देशोंको निकट ला दिया है । संसारके भिन्न भिन्न खण्डके मनुष्य आसानीसे मिल-जुल सकते हैं। ऐसी अवस्थामें कई विषयोंमें विश्व-संघकी योजना बनानेकी शक्ति उपलब्ध हो गई है। इस युगमें मनुष्यकी रग रगमें पैठा हुआ धर्म-तत्त्वका एकदेशीय शिक्षण चल नहीं सकता और चलना भी नहीं चाहिए । वस्तुतः इस युगने ही सर्व-मिलन-योग्य कालेजों और यूनिवर्सिटियोंकी स्थापना की है। यही संस्थाएँ प्राचीन विद्याधामों और धर्म-धामोंका स्थान ले रही हैं और तदनुरूप ऐतिहासिक और तुलनात्मक धर्मशिक्षाकी नींव रखी गई है। यह शिक्षा प्राचीन धर्मधामोंको अपनी उदारतासे प्रकाशित करेगी और अगर उन्होंने अपनी संकुचितता न छोड़ी तो वे अपने आपको तेजोहीन बना लेंगे। श्रीराधाकृष्णनका यह कथन उपयुक्त ही है कि कॉलेज और यूनिवर्सिटियाँ धर्म-प्रचारके स्थान नहीं हैं; ये तो
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