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________________ हरिजन और जैन १५७ हैं और न हरिजन ही अपनेको जैनसमाजका अंश मानते हैं। इसी तरह हरिजनोंमें जैनधर्मके एक भी विशिष्ट लक्षणका आचरण नहीं है और न वे जैनधर्मः धारण करनेका दावा ही करते हैं। हरिजनोंमें चाहे जितनी जातियाँ हों, पर जो क्रिश्चियन और मुसलमान नहीं हुए हैं वे सभी शंकर, राम, कृष्ण, दुर्गा, काली आदि वैदिक और पौराणिक परम्पराके देवोंको ही मानते, भजते और पूजते हैं। इसी तरह वैदिक या पौराणिक तीर्थों, पर्वतिथियों और व्रत नियमोंको पालते हैं। प्राचीन या अर्वाचीन हरिजन सन्तोंको भी वैदिक और पौराणिक परम्परामें ही स्थान मिला है। इस लिए हरिजनोंको हिन्दुसमाजका अंग और हिन्दू धर्मका अनुयायी मान लेनेपर उनका समावेश हिन्दूसमाजकी वैदिक-पौराणिक परम्परामें ही हो सकता है, जैन परम्परामें तो किसी भी तरह नहीं । इसलिए दूसरे पक्षवालोंको यदि हरिजन-मन्दिर-प्रवेशसे जैन समाजको मुक्त रखना है तो यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि जैनधर्म हिन्दूधर्मसे जुदा है। अधिकसे अधिक इतना ही कहना चाहिए कि हरिजन भी हिन्दू हैं, जैन भी हिन्दू हैं । जैनधर्म हिन्दूधर्मका एक भाग है, फिर भी हरिजन जैन समाज के अंग नहीं हैं और न वे जैनधर्मके अनुयायी हैं । हिन्दू समाज और हिन्दू धर्मको एक शरीर माना जाय और उसके अवान्तर भेदोंको हाथ पैर, अँगूठा या अँगुली जैसा अवयव माना जाय, तो हरिजन हिन्दूधर्मका अनुसरण करनेवाले हिन्दूसमाजके एक बड़े भाग-वैदिक पौराणिक धर्मानुयायी समाज-मैं ही स्थान पा सकते हैं न कि जैन समाजमें । हरिजन हिन्दू हैं और जैन भी हिन्दू हैं, इससे हरिजन और जैन अभिन्न सिद्ध नहीं हो सकते, जैसे कि ब्राह्मण और राजपूत या राजपूत और मुसलमान । मनुष्य-समाजके ब्राह्मण,, राजपूत और मुसलमान सभी अंग हैं, फिर भी वे मनुष्य होकर भी भीतर भीतर बिलकुल भिन्न हैं। इसी तरह हरिजन और जैन हिन्द होकर भी भीतर ही भीतर समाज और धर्मकी दृष्टि से बिलकुल जुदे हैं । यदि दूसरे पक्षवाले ऐसा विचार रखते हैं तो वे साधार कहे जा सकते हैं । अतः अब इसी पक्ष के ऊपर विचार करना उचित है। हम यहाँ यदि जैनधर्मके असली प्राणको न पहिचानें तो प्रस्तुत विचार अस्पष्ट रह जायगा और चिर कालसे चली आनेवाली भ्रान्तियाँ चालू ही रहेंगी। प्रत्येक धर्मका एक विशिष्ट ध्येय होता है, जैन धर्मका भी एक विशिष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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