SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म और समाज द्वारा पाले जानेवाले अनेक धर्म हिन्दूधर्मकी छत्रछायामें आ जाते हैं । इस्लाम, - जरथुस्त्र, ईसाई और यहूदी आदिको छोड़कर, जिनके कि मूल धर्मपुरुष और -मूल तीर्थस्थान भारतसे बाहर हैं, बाकीके सभी धर्म - पन्थ ' हिन्दूधर्म ' में शामिल हैं । बौद्धधर्म भी जिसका कि मुख्य और बहुभाग हिन्दुस्तान के बाहर है, हिन्दूधर्मका ही एक भाग है, भले ही उसके अनुयायी अनेक दूरवर्ती "देशों में फैले हुए हैं । धर्म की दृष्टिसे तो बौद्धधर्म हिन्दूधर्मकी ही एक शाखा है । 1 १५६ वास्तविक दृष्टिसे सारा जैनसमाज हिन्दुस्तानमें ही पहले से बसता चला आया है और आज भी बस रहा है। इसलिए जैन जिस तरह समाजकी दृष्टिसे हिन्दूसमाजकी एक शाखा हैं, उसी तरह धर्म की दृष्टिसे भी हिन्दूधर्मका एक - मुख्य और प्राचीन भाग है । जो लोग 'हिन्दूधर्म' शब्दसे केवल 'वैदिक धर्म' - समझते हैं वे न तो जैनसमाज और जैनधर्मका इतिहास जानते हैं और न हिन्दू समाज और हिन्दूधर्मका । अपने कामचलाऊ छिछले ज्ञानके बलपर जैनधर्मको हिन्दूधर्मसे जुदा गिननेका साहस करना स्पष्टतया अपनी हँसी कराना है। भारतके या विदेशोंके प्रसिद्ध विद्वानोंने जब जब हिन्दूदर्शन या हिन्दूधर्मके · सम्बन्धमें लिखा है, तब तब वैदिक, बौद्ध और जैन तत्त्वज्ञान और धर्मकी सभी परम्पराओंको लेकर विचार किया है । जिन्होंने हिन्दू साहित्यका इतिहास लिखा है उन्होंने भी जैन साहित्यको हिन्दू साहित्यकी एक शाखाके रूपमें ही स्थान दिया है । सर राधाकृष्णनकी 'इंडियन फिलासफी ' डॉ० दासगुप्ता आदि के दर्शन ग्रन्थ, आचार्य आनन्दशंकर बापूभाई ध्रुवकी ' हिन्दूधर्मकी वालपोथी ' और दीवान नर्मदाशंकर मेहताका 'हिन्द तत्त्वज्ञानका इतिहास' आदि में वैदिक, बौद्ध और जैन इन तीनों ही जीवन्त भारतीय धर्म-परम्पराओंका हिन्दूधर्म के रूपमें वर्णन किया है । इस तरह जैनधर्म हिन्दूधर्मके अन्तर्गत हो जाता है, फिर भी यह प्रश्न खड़ा ही रह जाता है कि जब हरिजन मूलमें ही जैनधर्म के अनुयायी नहीं हैं और जैन समाज के अंग भी नहीं है, तब उनके लिए बननेवाला कानून वे हिन्दू समाजके जिस भागके अंश हों अथवा हिन्दूधर्मकी जिस शाखा के अनुयायी हों उसी हिन्दूसमाज और हिन्दूधर्मके भागको लागू होना चाहिए न कि समस्त हिन्दू"समाज और समस्त हिन्दूधर्मको । न तो जैन अपने समाजमें हरिजनोंको गिनते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy