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________________ युवकोंसे १४९ करते, सो अपने अज्ञानके कारण या शास्त्रोंकी निरर्थकता के कारण ? मैं युवकोंसे पूछता हूँ कि आप अपने समाजके लम्बे कालका कौन-सा कार्य संसारके सामने रख सकते हैं ? देश विदेशके जैनेतर विद्वान् भी जैन साहित्यका अद्भुत मूल्यांकन करते हैं और उसके अभाव में भारतीय संस्कृति या इतिहासका पृष्ठ अधूरा मानते हैं। विदेशोंमें लाखों रुपये खर्च करके जैन साहित्य संग्रह करनेका प्रयत्न हो रहा है। ऐसी स्थितिमें जैन शास्त्रों या जैन साहित्यको जला देनेकी बात कहना पागलपन नहीं तो और क्या है ? तीर्थों और मन्दिरोंके ऐकान्तिक विरोधियोंसे मेरा प्रश्न है कि इस तीर्थसंस्थाके इतिहासके पीछे स्थापत्य, शिल्प और प्राकृतिक सौन्दर्यका कितना भव्य इतिहास छिपा हुआ है, क्या आपने कभी इस विषय में सोचा है ? स्थानक - वासी समाजको अगर उसके पूर्व पुरुषोंके स्थान या स्मृतिके विषयमें पूछा जाय, तो वे इस विषय में क्या कह सकते हैं ? क्या ऐसे अनेक तीर्थ नहीं हैं। जहाँ के मंदिरों की भव्यता और कलाको देखकर आपका मन यह कहनेको विवश हो जाय कि लक्ष्मीका यह उपयोग वास्तव में सफल कहा जा सकता है ? इसी भाँति दूसरे ऐकान्तिक पक्षसे भी मैं आदरपूर्वक पूछना चाहता हूँ कि अगर हमारे साधु वास्तव में सच्चे साधु हैं, तो आज उनमें गृहस्थवर्ग से भी ज्यादा मारामारी, पक्षापक्षी, तू तू मैं मैं, और एक ही धनिकको अपना अपना अनुयायी बनानेकी अव्यक्त होड़ क्यों चल रही है ? अक्षरशः शास्त्रोंके माननेवालोंसे मेरा यह निवेदन है कि यदि शास्त्रोंके प्रति आपकी अनन्य भक्ति है, तो आपने उन शास्त्रोंको पढ़ने और विचारनेमें तथा देशकालानुसार उपयोगिता - अनुपयोगिताका पृथक्करण करनेमें कभी अपनी बुद्धि लगाई है या दूसरोंकी ही बुद्धिका उपयोग किया है ? मंदिर संस्था के पीछे सर्वस्व होम देनेवाले भाइयोंसे मेरा यह निवेदन है कि कितने मंदिरोंकी व्यवस्था करनेकी शक्ति आपमें है ? उनके ऊपर होनेवाले आक्रमणोंका प्रतिकार करनेकी कितनी शक्ति आपके पास है ? एकतरफी धुनमें कहीं आप इसके आवश्यक कर्त्तव्य तो नहीं भूल जाते ? इस प्रकार दोनों पक्षोंसे पूछताछकर मैं उनका ध्यान विवेककी ओर आकर्षित करना चाहता हूँ । मुझे विश्वास है कि अगर दोनों वर्ग मर्यादामें रहकर विवेकपूर्वक विचार करें, तो अपने अपने वर्ग में रहकर काम करते हुए भी बहुत-सी कठिनाइयोंसे बच जायेंगे । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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