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________________ धर्म और समाज - काम-काज और उद्योग बंधनकारक होनेसे उसके लिए त्याज्य हैं । इसलिए जैन साधुपर स्वश्रमका सिद्धान्त किस तरह लागू हो सकता है ? सिद्धान्तके लागू करने पर उसका आध्यात्मिक जीवन, उसका संसारत्याग, और उसका निलेपत्व किस तरह सुरक्षित रह सकता है ? ऐसी शंका होना सहज है। परन्तु प्राचीन जैनपरंपरा, जैन त्यागका मर्म, जैन शास्त्र, जैन इतिहास तथा आधुनिक देशकालके संयोग और साधु समाबकी स्थितिपर विचार करनेके बाद मुझे स्पष्ट लगता है कि स्वश्रमका तत्त्व ऊपर ऊपरसे देखनेपर भले ही विरुद्ध लगता हो, फिर भी तत्त्व दृष्टिसे उसका जैन-त्याग और जैन-सिद्धान्तके साथ संपूर्ण रूपसे मेल बैठ जाता है। क्या कोई यह दावा कर सकता है कि आजकलका जैन साधु-समाज आध्यात्मिक है ? यदि वह आध्यात्मिक है, तो क्या इस समाजमें दूसरे समाजोंकी अपेक्षा अधिक क्लेश, कलह, पक्षापक्षी, तुच्छता, अभिमान, -स्वार्थ और डरपोकपन, इत्यादि दोष निभ सकते ? क्या कोई यह सिद्ध करनेका साहस करता है कि आजकलका जैन साधु देशकालको जाननेवाला और व्यवहारकुशल है ? यदि ऐसा है तो हजारोंकी संख्यामें साधुओंके होनेपर भी जैनसमाज पिछड़ा हुआ क्यों है ? और स्वयं साधु लोग एक तुच्छ व्यक्तिकी तरह सिर्फ भलोंकी दयापर क्यों जीवित हैं ? इतने बड़े साधुसमाजको रखनेवाला और उसका भक्तिपूर्वक पालन पोषण करनेवाला जैन समाज संगठन या आरोग्य, साहित्यप्रचार या साहित्यरक्षा, शिक्षण या उद्योग, सामाजिक सुधार या राजनीति आदि बातोंमें सबसे पीछे क्यों है ? सच तो यह है कि जैन साधु अपनेको त्यागी समझता है और कहता है, लोग भी उसे त्यागी रूपसे ही पहचानते हैं परन्तु उसका त्याग सिर्फ कर्म-क्रिया और स्वश्रमका त्याग है, उसके फल अर्थात भोगका त्याग नहीं । वह जितने अंशमें स्वश्रम नहीं करता, उतने ही अंशमें दूसरोंकी मेहनत और दूसरोंकी सेवाका अधिकाधिक भोग करता है। वह यदि त्यागी है तो सिर्फ परिश्रम-त्यागी है, भोग या फलका त्यागी नहीं । फिर भी जैन साधु अपनेको भोगी नहीं मानता है, दूसरे लोग भी नहीं मानते । क्योंकि लोग समझते हैं कि यह तो अपना घर-बार और उद्योग-धंधा छोड़कर बैठा है । इस दृष्टिसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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