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हमने मानव-जाति में दो प्रकारसे धर्म - बीजका विकास देखा । पहले प्रकार में धर्म- बीजके विकासके आधाररूपसे मानव जातिका विकसित जीवन या विकसित चैतन्यस्पन्दन विवक्षित है और दूसरे प्रकार में देहात्मभावनासे आगे बढ़कर पुनर्जन्म से भी मुक्त होनेकी भावना विवक्षित है | चाहे जिस प्रकार से विचार किया जाय, विकासका पूर्ण मर्म ऊपर कहे हुए ऋषिवचनमें ही है, जो वैयक्तिक और सामाजिक श्रेयकी योग्य दिशा बतलाता है ।
प्रस्तुत पुस्तक में धर्म और समाजविषयक जो जो लेख, व्याख्यान आदि संग्रह किये गये हैं, उनके पीछे मेरी धर्मविषयक दृष्टि वही रही है जो उक्त ऋषिवचनके द्वारा प्रकट होती है । तो भी इसके कुछ लेख, ऐसे मालूम पड़ सकते हैं कि एक वर्ग विशेषको लक्ष्यमें रखकर ही लिखे गये हों । बात यह है कि जिस समय जैसा वाचक वर्ग लक्ष्य में रहा, उस समय उसी वर्ग के अधिकारकी दृष्टिसे विचार प्रकट किये गये हैं । यही कारण है कि कई लेखों में जैनपरंपराका सम्बन्ध विशेष दिखाई देता है और कई विचारों में दार्शनिक शब्दों का उपयोग भी किया गया है । परन्तु मैंने यहाँ जो अपनी धर्मविषयक दृष्टि प्रकट की है यदि उसीके प्रकाशमें इन लेखोंको पढ़ा जायगा तो पाठक यह अच्छी तरह समझ जायँगे कि धर्म और समाजके पारस्परिक सम्बन्धके बारेमें मैं क्या सोचता हूँ । यों तो एक ही वस्तु देश-कालके भेदसे नाना प्रकारसे कही जाती है।
सरित्कुंज, अहमदाबाद
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- सुखलाल
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