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________________ १२२ धर्म और समाज मर्यादा तो उससे भी अधिक संकुचित, जब कि नव मानस बिलकुल ही भिन्न प्रकारका है। ऐसी स्थिति, वर्तमान साधु-वर्गमेंसे पुरानी शास्त्र-संपत्तिको नई दृष्टिसे देखनेवाले विवेकानन्द, रामकृष्ण जैसे साधु निकलना तो संभव नहीं है। तात्पर्य यह कि कोई भी साधु नवमानसका संचालन कर सके, समीपके भविष्यमें तो क्या लम्बी मुद्दतके बाद भी ऐसी कोई संभावना नहीं है। इसलिए अब दूसरा प्रकार बाकी रहता है। उसके अनुसार नवशिक्षणप्राप्त नई पीढीके मानसको खुद ही अपनी लगाम अपने हाथमें लेनेकी जरूरत है और यह उचित भी है। जब पतित, दलित और कुचली हुई जातियाँ भी अपने आप उठनेका प्रयत्न कर रही हैं तब संस्कारी जैन-प्रजाके मानसके लिए तो यह कार्य तनिक भी कठिन नहीं। अपनी लगाम अपने हाथमें लेनेके पहले नवीन पीढ़ी चंद महत्त्वके सिद्धान्त निश्चिन्त कर डाले। उनके अनुसार कार्यक्रम गढ़े और भावी स्वराज्यकी योग्यता प्राप्त करनेकी तैयारीके लिए सामाजिक उत्तरदायित्व हाथमें लेकर सामूहिक प्रभोंको व्यक्तिगत लाभकी दृष्टिसे देखकर स्व-शासन और स्व-नियंत्रणके बलका संग्रह करे। पर्युषण-व्याख्यानमाला अनुवादक . बम्बई, ११३६ निहालचंद्र पारेख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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