SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्तमान साधु और नवीन मानस ११३ प्रत्याघाती बल भी सामने आने लगा और जैन समाज के नये मानसके साथ पुराने मानसका संघर्ष होने लगा । परन्तु जिसे हम जैन समाजका पुराना मानस कहते हैं सचमुच में तो उसे साधुओंका मानस समझना चाहिए | यहः सच है कि कट्टर और दुराग्रही स्त्री-पुरुष जैन गृहस्थोंमें भी थे और अब भी हैं । परन्तु उनके संचालनकी बागडोर सदा साधुओंके हाथमें रही है । इसका यह अर्थ नहीं कि तमाम गृहस्थोंने किसी एक समयमें अपना नेतृत्व साधुवर्गको सौंप दिया है किन्तु पुरानी परम्पराके अनुसार एक ऐसी मान्यता चली आई है. कि शिक्षा और त्यागमें तो साधु ही आगे हो सकते हैं । गृहस्थ यदि पढ़ते हैं, तो केवल अपना व्यापार चलानेके लिए । सब विषयोंका और सभी प्रकारका ज्ञान तो साधुओं में ही हो सकता है । और त्याग तो साधुओंका जीवन ही रहा । इस परम्परागत श्रद्धाके कारण जाने या अनजाने गृहस्थ-धर्म साधुओंके कथनानुसार ही चलता आया है । व्यापार-धन्धेके अलावा विचारणीय प्रदेश में सदासे: केवल साधु ही सच्ची सलाह देते आये हैं - इसीलिए जब भी कोई नई परिस्थिति खड़ी होती है, और पुरानी लकीरके फकीर क्षुब्ध होते या घबड़ाते हैं, तब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रीति से साधुओंका मानस ही उस क्षोभका प्रेरकः नहीं तो पोषक अवश्य होता है । यदि ऐसे क्षोभके समय कोई समर्थ: विचारक साधु लकीरके फकीर श्रावकोंको योग्य सलाह दे, तो निश्चय ही वह क्षोभ तुरन्त मिट जाय । अज्ञता, संकीर्णता, प्रतिष्ठा भय या अन्य कारणोंसे साधु लोग नवीन शिक्षा, नवीन परिस्थिति और उसके बलका अन्दाज नहीं लगा सकते । परिणामस्वरूप वे नवीन परिस्थितिका विरोध न भी करें, तो भी जब उदासीन रहते हैं तब लकीरपंथी श्रद्धालु जन मान लेते हैं कि जब महाराज साहब ऐसी बातोंमें चुप हैं तब यह नवीन प्रकाश या नवीना परिस्थिति समाज के लिए इष्ट नहीं होगी और इसलिए वे लोग बिना कुछ सोचे समझे खुद अपनी ही संतानों का सामना करने लगते हैं । और यदि कहीं कोई प्रभावशाली साधु हाथ डाल देते हैं, तब तो जलतेमें घी पड़ जाता है । साधु समाजकी जडता पर यह बात खास तौर से श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों में ही दिखाई देती है । दिगम्बर समाजमें तो उनके सद्भाग्यसे साधु लोग रहे ही नहीं थे । अवश्य ही अभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy